17 मार्च 1959 को रात 10 बजे से ठीक पहले दलाई लामा एक सैनिक की वर्दी में चुपचाप महल से निकले। उनके साथ उनकी मां, भाई-बहन, शिक्षक, वरिष्ठ मंत्री भी थे। फिर क्या-क्या हुआ और वह भारत कैसे पहुंचे, ये दास्तां बेहद दिलचस्प है।
Dalai Lama: दलाई लामा का आज 90वां जन्मदिन है और धर्मशाला में भारी बारिश के बावजूद 14वें दलाई लामा का जन्मदिन मनाने के लिए हजारों लोग एकत्र हुए। यह आयोजन ऐसे वक्त हुआ है जब पिछले कुछ दिनों से यह अटकलें लगाई जा रही थीं कि दलाई लामा संस्था को समाप्त कर दिया जाएगा। उनके जन्मदिन पर विभिन्न तिब्बती बौद्ध संप्रदायों के प्रतिनिधियों, स्कूली बच्चों, विभिन्न देशों के नर्तकों और गायकों और दुनिया भर से बौद्ध धर्मावलंबियों ने भाग लिया। दलाई लामा का जीवन किसी फंतासी से कम नहीं है, किस तरह वह तिब्बत में चीन के चंगुल से निकलकर भागे और दुनिया ड्रैगन के साम्राज्य और उसकी साजिशों को मुंह चिढ़ाते रहे, इसकी कहानी बेहद दिलचस्प है।
चीन के चंगुल से कैसे बच निकले दलाई लामा
एक ऐसा निमंत्रण जो दरअसल जाल था
तिब्बत से दलाई लामा का पलायन रातों-रात नहीं हुआ। 1950 से ही तिब्बत पर चीन की पकड़ मजबूत होती जा रही थी। चीन ने तिब्बती स्वायत्तता की गारंटी दी, लेकिन ऐसा सिर्फ कागजों पर ही हुआ। 13वें दलाई लामा ने दशकों पहले चेतावनी दे दी थी। 1959 तक चीनी हमले रोजमर्रा की जिदगी बन गए थे। फिर चीन से एक निमंत्रण आया। चीनी जनरल झांग चेनवु ने दलाई लामा को सैन्य मुख्यालय में एक डांस शो में शिरकत करने के लिए बुलाया। तिब्बती लोग जानते थे कि इसका क्या मतलब है।
17 मार्च 1959 को रात 10 बजे से ठीक पहले दलाई लामा एक सैनिक की वर्दी में चुपचाप महल से निकले। उनके साथ उनकी मां, भाई-बहन, शिक्षक, वरिष्ठ मंत्री भी थे। उन्होंने काइचू नदी को पार किया, हिमालय में गए, रात के दौरान यात्रा करते रहे और दिन में छिपे रहे ताकि चीनी सैनिक उन्हें पकड़ न सकें। उनके पास कोई विस्तृत नक्शे नहीं थे। सिर्फ लोगों से सुनी जानकारियों पर आग बढ़ते रहे। लोककथाओं के अनुसार, भिक्षुओं की प्रार्थनाओं ने बादलों और धुंध पैदा की जिसने उन्हें चीनी विमानों से छिपा दिया।
दलाई लामा का सफर
दलाई लामा ने लिखा नेहरू को पत्र
26 मार्च तक दलाई लामा भारत की सीमा से कुछ ही दिनों की दूरी पर लहुंत्से द्ज़ोंग पहुंच गए। उन्होंने भारत के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को लिखा, जब से तिब्बत लाल चीन के नियंत्रण में आया है...मैं, मेरे सरकारी अधिकारी और नागरिक शांति बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं... लेकिन चीनी सरकार धीरे-धीरे तिब्बती सरकार को अपने अधीन कर रही है। फिर उन्होंने शरण मांगी, इस गंभीर स्थिति में हम त्सोना के रास्ते भारत में प्रवेश कर रहे हैं... मुझे उम्मीद है कि आप हमारे लिए आवश्यक व्यवस्था करेंगे।
नेहरू ने लिया निर्णायक फैसला
दिल्ली वापस आकर नेहरू को एक तूफान का सामना करना पड़ा। दलाई लामा का स्वागत करने का मतलब था बीजिंग को नाराज करना। रक्षा मंत्री वी के कृष्ण मेनन और अन्य लोग संशय में थे। लेकिन नेहरू अपनी बात पर अड़े रहे। नेहरू ने बाद में संसद को बताया, दलाई लामा को एक बहुत बड़ी और कठिन यात्रा करनी थी और यात्रा के हालात भी दलाई लामा के लिए दर्दनाक थे। इसलिए यह उचित है कि दलाई लामा को अपने सहयोगियों से सलाह करने और मानसिक तनाव से उबरने के लिए शांतिपूर्ण माहौल में अवसर मिले।
31 मार्च को, दलाई लामा और उनके दल ने अरुणाचल प्रदेश में खेंजीमाने दर्रे पर मैकमोहन रेखा पार की। असम राइफल्स के हवलदार नरेन चंद्र दास ने थके हुए युवा भिक्षु को सलामी दी। दशकों बाद, 2017 में दलाई लामा ने बूढ़े सैनिक से कहा था, आपके चेहरे को देखकर, मुझे अब एहसास हो रहा है कि मैं भी बहुत बूढ़ा हो गया हूं...बहुत-बहुत धन्यवाद।
धर्मशाला की पहाड़ियों में मिला नया घर
चुतांगमू में असम राइफल्स पोस्ट से दलाई लामा को तवांग मठ ले जाया गया, जो तब असम में तेजपुर था। वहां 18 अप्रैल को उन्होंने पहली बार भारतीय धरती पर बात की। उन्होंने चीन की आक्रामकता की निंदा की। उन्होंने भारत को धन्यवाद दिया। और उन्होंने सीधे तौर पर बताया- दलाई लामा स्पष्ट रूप से कहना चाहते हैं कि वे ल्हासा और तिब्बत छोड़कर अपनी मर्जी से भारत आए हैं, न कि किसी जबरदस्ती से। इससे चीन भड़क गया। दलाई लामा की वापसी की मांग की। नेहरू ने इनकार कर दिया। 1960 तक दलाई लामा धर्मशाला के मैकलियोडगंज में बस गए थे जो बाद में छोटा ल्हासा बन गया, जो तिब्बत की निर्वासित सरकार का घर था। यहां स्कूल, मठ, सांस्कृतिक केंद्र उभरे। 1989 में दलाई लामा को उनके अहिंसक संघर्ष के लिए नोबेल शांति पुरस्कार मिला।