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जरांगे की जीत या फडणवीस का मास्टरस्ट्रोक? मराठा आरक्षण की सियासत का असली विजेता कौन?

मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के लिए यह सबसे कठिन चुनौती थी। आंदोलन के उग्र होते तेवरों के बीच प्रशासनिक दबाव भी था और विपक्ष लगातार हमलावर था। लेकिन फडणवीस ने बातचीत के रास्ते खुले रखे और बैकचैनल से जरांगे समर्थकों से संवाद बनाए रखा। सबसे अहम क्षण वह रहा जब सही समय पर सरकार ने नया जीआर जारी किया।

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मराठा आरक्षण की बहस महाराष्ट्र की राजनीति में कोई नई नहीं है। पिछले कई दशकों से यह मुद्दा अलग-अलग दौर में सरकारों को चुनौती देता रहा है। लेकिन इस बार जिस अंदाज़ में मनोज जरांगे के नेतृत्व में आंदोलन ने रफ़्तार पकड़ी, उसने पूरे सत्ता प्रतिष्ठान को हिलाकर रख दिया। सरकार को झुकना पड़ा और नया सरकारी आदेश (जीआर) जारी करना पड़ा। जरांगे समर्थकों के लिए यह जनता की जीत है, लेकिन राजनीतिक गलियारों में इसे मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस का सोचा-समझा मास्टरस्ट्रोक भी बताया जा रहा है।

जरांगे का उभार

जरांगे ने आंदोलन को किसी पार्टी की छत्रछाया में न रखकर मराठा समाज के साझा मंच के तौर पर खड़ा किया। यही कारण है कि उनकी अपील गांव-गांव और समाज के हर तबके तक पहुंची। मराठवाड़ा से लेकर पश्चिम महाराष्ट्र तक लाखों लोग आंदोलन में शामिल हुए। जरांगे अब सिर्फ़ नेता नहीं, बल्कि मराठा अस्मिता के प्रतीक की तरह देखे जा रहे हैं। उनकी यह छवि उन्हें आने वाले समय में बड़ी राजनीतिक पूंजी दे सकती है, चाहे वे सक्रिय राजनीति में उतरें या आंदोलनकारी ही बने रहें।

फडणवीस की समयबद्ध चाल

मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के लिए यह सबसे कठिन चुनौती थी। आंदोलन के उग्र होते तेवरों के बीच प्रशासनिक दबाव भी था और विपक्ष लगातार हमलावर था। लेकिन फडणवीस ने बातचीत के रास्ते खुले रखे और बैकचैनल से जरांगे समर्थकों से संवाद बनाए रखा। सबसे अहम क्षण वह रहा जब सही समय पर सरकार ने नया जीआर जारी किया। अगर देरी होती तो हालात बिगड़ सकते थे। इस कदम से न केवल तत्काल टकराव टला, बल्कि सरकार ने यह भी दिखाया कि वह संवेदनशील मुद्दे पर त्वरित निर्णय लेने में सक्षम है।

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