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राष्ट्रपति को विधेयक भेजे जाने के मामले में केवल संविधान के प्रावधानों की व्याख्या करेंगे- सुप्रीम कोर्ट

संविधान पीठ में न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा और न्यायमूर्ति ए एस चंदुरकर भी शामिल हैं। संविधान पीठ ने पूछा, ‘‘सवाल है कि क्या संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए सामान्यतया समयावधि निर्धारित की जा सकती है?’’

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उच्चतम न्यायालय ने मंगलवार को कहा कि न्यायिक समीक्षा का अधिकार संविधान की मूल संरचना का अभिन्न हिस्सा है और न्यायालय संविधान संबंधी प्रश्नों का उत्तर देने से इनकार नहीं कर सकते, भले ही विवाद राजनीतिक प्रकृति का क्यों न हो। शीर्ष अदालत ने, हालांकि कहा कि वह राष्ट्रपति के संदर्भ पर विचार करते वक्त केवल संविधान की व्याख्या करेगी। राष्ट्रपति के संदर्भ में यह पूछा गया है कि क्या न्यायालय राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों से निपटने के लिए राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए समयसीमा निर्धारित कर सकता है।

सुप्रीम कोर्ट (फाइल फोटो- PTI)

PTI के अनुसार राष्ट्रपति के संदर्भ पर छठे दिन सुनवाई के दौरान तमिलनाडु सरकार की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक सिंघवी ने प्रधान न्यायाधीश बी. आर. गवई की अध्यक्षता वाली पांच-सदस्यीय संविधान पीठ के समक्ष केंद्र की उस दलील का विरोध किया, जिसमें इसने कहा था कि राज्यपालों एवं राष्ट्रपति के फैसलों की न्यायिक समीक्षा नहीं की जा सकती। उन्होंने कहा, ‘‘केंद्र ने दलील दी कि किसी भी न्यायिक हस्तक्षेप से संवैधानिक संतुलन अस्थिर हो जाएगा और यह शक्तियों के पृथक्करण की अवधारणा के विपरीत होगा।’’

‘मिनर्वा मिल्स’ फैसले का हवाला देते हुए पीठ ने कहा, ‘‘इस फैसले में इस बात पर जोर दिया गया है कि न्यायिक समीक्षा मूल ढांचे का हिस्सा है... विवाद राजनीतिक प्रकृति का हो सकता है, लेकिन जब तक यह एक संवैधानिक प्रश्न उठाता है, अदालत इसका जवाब देने से इनकार नहीं कर सकती।’’

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