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आखिर कौन है बुलेया? 400 साल बाद भी बॉलीवुड में क्यों है जिंदा, इश्क की वह आवाज कैसे बनी सूफी संगीत के सिर का ताज

बुलेया में कोई अपना यार देखता है तो कोई ऊपरवाले का अक्स देखता है। हर कोई खुद को बुलेया से जुड़ा पाता है। लेकिन जब ये सवाल दौड़ता है कि बुलेया कौन है, तो बुलेया कहता है कि मैं खुद नहीं जानता कि मैं कौन हूं।
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कौन थे बुलेया, क्यों आज भी गाए गुनगुनाए जाते हैं बुल्ले शाह (Photo: You Tube/ AI Image)

कुछ दिनों पहले मैं अपने एक दोस्त के यहां गया था। दोस्त का छोटा भाई रणबीर कपूर का बड़ा फैन है। वह अपने मोबाइल पर ही रणबीर की फिल्म 'ऐ दिल है मुश्किल' का एक गाना सुन रहा था। गाने के बोल थे -

रांझण दे यार बुलेया सुन ले पुकार बुलेया तू ही तो यार बुलेया मुर्शिद मेरा, मुर्शिद मेरा

तेरा मुकाम कमले सरहद के पार बुलेया परवरदिगार बुलेया हाफिज तेरा, मुर्शिद मेरा..

मैं भी गाने में खो गया। गाना खत्म हुआ तो उसने मुझसे पूछा- भैया ये बुलेया क्या होता है। अभी उसने जवाब जानने के लिए मेरी तरफ अपना चेहरा घुमाया ही था कि मैं और मेरा दोस्त किसी और बात में लग गए। जब मैं घर लौटा तो दिमाग में उसका वही सवाल दौड़ रहा था कि 'ये बुलेया क्या होता है'। फिर क्या, मैंने कुछ किताबें खोलीं, लैपटॉप ऑन किया और लग गया उस सवाल का जवाब तलाशने में कि ये बुलेया है कौन। कई दिनों की रिसर्च और लोगों से बातचीत के बाद मुझे उस बुलेया के बारे में बहुत कुछ पता चला। इस आर्टिकल के खत्म होते-होते आप भी जान जाएंगे कि बुलेया क्या है, कौन है और क्यों उसे गीतों में गाया-गुनगुनाया जाता है।

संगीत के जरिए हमने बुलेया के कई रंग देखे हैं। कोई उसमें अपना यार देखता है तो कोई ऊपरवाले का अक्स देखता है। हर कोई खुद को बुलेया से जुड़ा पाता है। लेकिन जब ये सवाल दौड़ता है कि बुलेया कौन है, तो बुलेया कहता है कि मैं खुद नहीं जानता कि मैं कौन हूं। ना तो मैं कट्टर मुसलमान हूं और ना ही नास्तिक। ना मैं पवित्र हूं और ना ही मलीन। ना तो मैं कोई पैगंबर हूं और ना ही कोई अहंकारी बादशाह। मुझे पता नहीं मैं कौन हूं। बुलेया की इसी भाव को पंजाब के सूफी गायक रबी शेरगिल ने गाया तो धूम मच गई:

बुल्ला की जाणा मैं कौण।

ना मैं मोमन विच मसीतां, ना मैं विच कुफर दीआं रीतां

ना मैं पाका विच पलीता, नाम मैं मूसा ना फरऔन।

तो जिस बुलेया को मैं ढूंढ़ने निकले उसे ही नहीं पता कि होना क्या होता है। जब इतिहास के पन्ने पलटेंगे और बुलेया को तलाशेंगे तो वह आपको मुर्शिद (खुदा से मिलाने वाला उस्ताद) खोजने की राह में खड़ा मिलता है। बुलेया अपने मुर्शिद को खोजते हुए उसके रंग में ऐसा रंगा कि गाने लगा- रांझा रांझा करदी नी मैं आपे रांझा होई..।

इस बुलेया का असली नाम अब्दुल्ला शाह था। अब्दुल्ला का जन्म 1680 में बहावलपुर में हुआ। तब भारत और पाकिस्तान नहीं थे। अब बहावलपुर पाकिस्तान में है। अब्दुल्ला जब 6 साल का था तो अपने पिता शाह मुहम्मद दरवेश के साथ मलकावल (मुल्तान) चला गया। वहां अब्दुल्ला को प्यार से नाम मिला बुल्ले शाह। लोग बुल्ला ये बुलेया भी कहने लगे।

बुल्ले शाह के पिता मौलवी थे। सैयद जाति से होने के चलते उन्होंने अच्छी तालीम ली थी। अरबी फारसी खूब बढ़िया जानते थे। उनकी शख्सियत का असर बुल्ले शाह पर भी खूब पड़ा। बुल्ले शाह धार्मिक और सूफी किताबों में डूबने लगे। किताबों में डूब कर निकले बुलेया को रब पाने की चाहत हुई। इसके लिए उसे एक मुर्शिद की जरूरत थी। मुर्शिद यानी जो उसका रहबर हो, गुरू हो, सांई हो। जो उसे उसके रब से मिला दे।

मुर्शिद की तलाश बुलेया को सूफी संत हजरत शाह इनायत कादरी के दर पर कसूर तक ले गई। कसूर आज पाकिस्तान में है। शाह इनायत की चर्चा दूर दूर तक थी। उनसे मिलते ही बुल्ला सीधे पैरों में गिर पड़ा और गिड़गिड़ाने लगा- मुझे खुदा से मिला दें। बुल्ले शाह से शाह इनायत ने कहा- बुलेया, रब दा की पौणा, एधरों पुटणा ते ओधर लाउणा। य़ानी बुल्ले, रब को पाना मतलब एक पौधे को यहां से उखाड़कर वहां लगा देना है बस। यहीं से बुल्ले ने शाह इनायत को अपना मुर्शिद बना लिया।

जब बुल्ले शाह ने शाह इनायत को अपना मुर्शिद बनाया तो उन्होंने लिखा था- मोरा पिया घर आया ओ लाल नी। इस कव्वाली को नुसरत फतेह अली खान जैसे गायकों ने क्या सुंदर तरीके से गाया। साल 1995 में आइ फिल्म 'याराना' में गीतकार माया अलग ने बुल्ले शाह कए इसी कलाम पर लिखा- मेरा पिया घर आया ओ राम जी। इस गीत ने हमें बताया कि बुलेया का महबूब सिर्फ रब नहीं, राम भी है। वो तो बस नजर का फर्क है।

खुदा को तलाशने की राह में बुलेया अपने मुर्शिद के साथ ऐसे सफर पर निकला कि उसकी सारी निशानियां पीछे छूटती गईं। वह सूफी फकीर बन गया। अध्यात्म के शिखर पर पहुंचा। खुदा से मिलने की चाहत में खुद को भुला दिया। मुर्शिद की सोहबत में खुद की सारी पहचान मिटा दी। बुलेया की इसी दौर को फिल्म 'टोटल सियाप्पा' में अली जफर ने गाया है- चल बुल्लेया चल ओथे चलिए, जित्थे सारे एन्ने, ना कोई साड्‌डी जात पछाने ना कोई सानू मन्ने। यह कलाम बुल्ले शाह का ही था।

बुल्ले शाह जिस सफर पर थे वह उतनी आसान भी नहीं थी। पैगंबर मोहम्मद की पीढ़ी माने जाने वाले सैय्यद वंशज के बुल्ले का अराई जाति के शाह इनायत को मुर्शिद बनाना परिवार वालों को नागवार गुजरा। अराई जाति के लोग माली होते थे। वो खेतों में बुआई कटाई का काम करते थे। बुल्ले शाह के घरवालों ने उन्हें टोका। पाबंदियां लगाईं। लेकिन बुल्ले ने अपने मुर्शिद के लिए घर परिवार सब छोड़ दिया। बुल्ले के लिए बस जीवन का मतलब बस दो चीजें थीं- एक था रब और दूसरा उसका मुर्शिद।

बुल्ले शाह मुर्शिद से प्रेम में था। उसका प्रेम उसे ईश्वर के पास ले जाने वाला था। तभी किसी रोज मुर्शिद शाह इनायत को महसूस हुआ कि बुल्ला पूरी तरह से खुद को भूला नहीं हैं। वह उससे नाराज हो गए और फरमान सुनाया कि चला जा यहीं से और जब तक पूरी तरह से खुद को नहीं भूल जाना तब तक अपना शक्ल मत दिखाना। बुल्ले ने गुरु की बात मानी। चला गया। इधर-उधर भटकने लगा। भटकते हुए बुल्ले ने देखा कि एक महिला अपने रूठे प्रेमी को रिझाने के लिए संज संवर रही है। उसे नाच गाकर अपने दिल की बात बता रही है। बुल्ले को लगा कि ऐसा करने से माफी मिलती है। वह अपने मुर्शिद को मनाने के लिए नाच सीखने लगा। नाच में निपुण हो गया।

बुल्ले को एक दिन पता चला कि किसी दरगाह पर शाह इनायत आने वाले हैं। वह वहां कव्वालों की मंडली के साथ लड़कियों की तरह सज संवर कर पहुंच गया। वहां उसने चेहरे पर घूंघट किया और बेसुध होकर नाचने गाने लगा लगा। शाह इनायत ने पहचान लिया कि यह तो बुलेया है। उन्होंने पूछ लिया- कौन? बुल्ला! आंखों में आंसुओं का सैलाब लिये बुलेया ने जवाब दिया- बुल्ला नहीं भुल्ला (भूला)। उसने बताया कि अब वह खुद को भी पूरी तरह से भूल गया है। शाह इनायत ने रोते हुए उसे गले से लगा लिया। बुल्ले को उसका रब मिल गया।

सलमान खान की सुपरहिट फिल्म सुल्तान में इरशाद कामिल ने इसी वाकये को अपनी गायकी में सजाया जिसे पेपॉन ने गाया-

मैं भी नाचूं मनाऊं सोहणे यार को, चलूं मैं तेरी राह बुलेया.

मैं भी नाचूं रिझाऊं यार को, करूं न परवाह बुलेया।

फिल्म दिल से का गाना छैया छैया की प्रेरणा भी बुल्ले शाह ही हैं। जब बुल्ले शाह शाह इनायत की नाराजगी मिटाने के लिए नाचना सीख रहे थे तो वह अकसर गाते थे कि तेरे इश्के नचाया करके थैया थैया। इसी थैया थैया को गुलजार ने छैया छैया किया और पूरे गीत को खूबसूरती से रच दिया।

करीब चार सौ साल बीत जाने के बाद भी बुल्ले शाह सूफी संगीत की रूह बने हुए हैं। हर दौर के गायकों ने बुल्ले शाह को गाया। गुलजार ने एक इंटरव्यू में बताया कि बुल्ले शाह को गाते-गाते पाकिस्तान की मशहूर गायिका आबिदा परवीन खुद सूफी बन गईं। उनकी आवाज अब इबादत की आवाज लगती है।

बुल्ले शाह अपने कलामों में अक्सर लोगों को सच से रूबरू कराने के लिए हीर और रांझा जैसी लोक कथाओं का प्रयोग करते थे। उनके लिए रांझा ईश्वर का प्रतीक था और हीर मिलन की लालसा रखने वाली मानव आत्मा का। तभी तो बुल्ले शाह ने लिखा था- रांझा रांझा करदी हुण मैं आपे रांझा होईसद्दो मैनूं धीरो रांझा हीर न आक्खो कोई। सदियों बाद गुलजार ने फिल्म रावण में बुल्ले शाह की इसी कविता को गीत के रंग में ढाल लोगों तक पहुंचा दिया।

राजपाल प्रकाशन की किताब बुल्ले शाह में माधव हाड़ा लिखते हैं कि बुल्ले शाह ने अपने जीवन में धर्म के नाम पर कर्मकांड और अंधविश्वास का खुलकर विरोध किया। उन्होंने तमाम धर्मों पर इन बातों को लेकर कटाक्ष किए। वे कहते हैं कि मुल्ला और काज़ी धर्म का मार्ग बताने के बजाय मनु्ष्य को भ्रम में डालते हैं। ये ठग हैं और शिकारी की तरह चारों तरफ अपना जाल फैलाते हैं। इसी पर उन्होंने लिखा था-

मुल्लां काजी राह बतावण, देण धरम दे फेरे

इह तां ठग न जग देझीवर, लावण जाल चुफेरे।

बुल्ले शाह ने खोखले कर्मकांडों और मुल्ला काजियों को अपनी रचनाओं में ऐसा कोसा कि वह उन्हें फूटी आंख ना सुहाते। यहां तक कि उनकी मौत के बाद उन्हें कसूर की मिट्टी में दफनाने से रोक दिया गया। लेकिन बुल्ले शाह के शव को रातों-रात वहीं दफन किया गया और उनकी दरगाह आज भी पाकिस्तान के कसूर में उसी जगह पर है।

बुल्ले शाह की दरगाह हमेशा से सूफी संतों और गायकों के लिए हज के जेसी रही। दरअसल खुदा से इश्क के पंथ सूफी को, सूफी बनाने में बहुत से लोगों ने कांधा लगाया, लेकिन बुलेया ने दिल लगाया था। दरगाह पर आज भी आपको वहां के फकीरों की आवाज में बुल्ले शाह के काफिए सुनाई देंगे। दरगाह की दीवार पर बाबा बुल्ले शाह की जो मूरत उकेरी गई है उसमें वह किसी नर्तकी के वेश में अपने गुरु के सामने झूमते दिख रहे हैं। मानो वह लोगों से कह रही हो कि इश्क हमें नचाता है और इसी तरह झूमते हुए ही हम ईश्वर को पा सकते हैं।

आज जब धर्म और पहचान की राजनीति दुनिया भर में बढ़ रही है, बुल्ले शाह का पैग़ाम और भी ज़रूरी हो जाता है। अपनी रचनाओं से बुल्ले शाह ने हमसे हमेशा हमारा समर्पण मांगा। समर्पण अहंकार का, पहचान का, प्रेम के अलावा हर उस चीज का जो खुदा के दीदार में आड़े आए।

कसूर की मिट्टी में दफन बुल्ले शाह आज भी भारतीय संगीत में जिंदा है। उनके काफिये हमें आज भी याद दिलाते हैं कि दुनिया की सबसे बड़ी ताकत मोहब्बत है और यही बुल्ले शाह की सबसे बड़ी वसीयत भी है।

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Suneet Singh author

सुनीत सिंह टाइम्स नाऊ नवभारत डिजिटल में बतौर डिप्टी न्यूज़ एडिटर कार्यरत हैं। टीवी और डिजिटल पत्रकारिता में 13 साल का अनुभव है। न्यूज़रूम में डेस्क पर...और देखें

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