हर्षोल्लास से गूंजा पुणे, भारत के पहले सार्वजनिक गणपति का भव्य विसर्जन, शोभायात्रा में दिखा भक्ति और परंपरा का संगम

भारत के पहले सार्वजनिक गणपति का भव्य विसर्जन (Photo - Time Now Navbharat)
परंपरा, आस्था और शौर्य के संगम ने रविवार को पुणे की सड़कों को भक्ति के रंग में रंग दिया। भारत के पहले सार्वजनिक गणपति मंडल श्रीमंत भाऊसाहेब रंगारी गणपति बप्पा का विसर्जन लगभग 20 घंटे लंबी उत्सवी शोभायात्रा के बाद सम्पन्न हुआ। भव्य ‘श्री गणेश रत्न रथ’ पर विराजमान बप्पा को हजारों श्रद्धालुओं ने आंसू भरी आंखों और जोशीले नारों के बीच विदा किया।
गणेश विसर्जन शोभायोत्रा
अनंत चतुर्दशी की सुबह 7:30 बजे डीसीपी कृशिकेश रावले ने मंडप पर पूजा-अर्चना की। इसके बाद सुबह 8 बजे प्रतिमा को रत्न महल से बाहर लाकर सुसज्जित रत्न रथ पर स्थापित किया गया। यह रथ मंडई में स्थित टिळक प्रतिमा स्थल से मुख्य शोभायात्रा में सम्मिलित हुआ। देर शाम से आधिकारिक विसर्जन शोभायात्रा शुरू हुई और पूरी रात “गणपति बप्पा मोरया” के जयघोष के बीच आगे बढ़ती रही।
इस भव्य शोभायात्रा ने महाराष्ट्र की सांस्कृतिक और पारंपरिक धरोहर को जीवंत किया। मर्दानी खेल की शानदार प्रस्तुतियों ने मराठा योद्धाओं के शौर्य और पराक्रम को दर्शाया। वहीं श्रीराम और रामणबाग ढोल-ताशा पथक की गूंज ने पूरे माहौल को ऊर्जा और उत्साह से भर दिया। भक्तों की भीड़ अनुशासित रहते हुए पूरे जोश के साथ शोभायात्रा में शामिल रही।
ढोल-ताशों के साथ निकली शोभायात्रा
श्रीमंत भाऊसाहेब रंगारी गणपति ट्रस्ट के न्यासी और उत्सव प्रमुख पुणीत बालन ने कहा, “हम हर साल कोशिश करते हैं कि बप्पा का विसर्जन और भी आकर्षक और सार्थक बने। इस बार रत्न रथ को विशेष रूप से सजाया गया। ढोल-ताशा पथक और मर्दानी खेल दलों ने परंपरा की असली झलक पेश की। हमारी परंपरा के अनुसार, सभी पांच मानाचे गणपति को पुष्पहार अर्पित किए गए।”
बालन ने आगे यह भी कहा कि इस बार गणेश उत्सव में डीजे-रहित शोभायात्रा की अपील को लोगों ने बड़े पैमाने पर स्वीकार किया। उन्होंने विश्वास जताया कि आने वाले 5–6 वर्षों में पूरा पुणे गणेशोत्सव डीजे-मुक्त होकर पारंपरिक स्वरूप में ही आयोजित होगा। गौरतलब है कि श्रीमंत भाऊसाहेब रंगारी गणपति मंडल की स्थापना 1892 में स्वतंत्रता आंदोलन के दौर में हुई थी। अविभाजित भारत का पहला सार्वजनिक गणपति मंडल होने के नाते इसका इतिहास गौरवशाली है। इस वर्ष का विसर्जन न केवल पुणे की सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक बना बल्कि श्रद्धा और परंपरा की शक्ति का अद्वितीय संदेश भी दे गया।
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