एक करेंसी, पांच देश, एक लक्ष्य — क्या BRICS तोड़ पाएगा डॉलर का दबदबा?

ब्रिक्स की अपनी करेंसी, कितना है संभव
अमेरिका ने हाल के महीनों में दुनिया पर जैसी दादागिरी दिखाई है, टैरिफ पर टैरिफ लगाया है, उससे BRICS करेंसी की मांग जोर पकड़ने लगी है। विश्व की सबसे बड़ी आबादी का नेतृत्व करने वाली BRICS (ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका) में पहले हल्के लेवल पर अपनी करेंसी की बात चल रही थी, लेकिन BRICS देशों के प्रति अमेरिका की नीति ने अब इस अवधारणा को मजबूत कर दिया है और इसमें शामिल देश अब गंभीर होकर इसपर विचार करते हुए दिख रहे हैं। ब्राजील BRICS मुद्रा पर आक्रमक दिख रहा है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप को भी अब नई मुद्रा की आहट सुनाई देनी लगी है, यही कारण है वो लगातार धमकी दे रहे हैं कि अगर डॉलर को चुनौती मिली तो उसके परिणाम गंभीर होंगे। हालांकि ट्रंप की धमकी का अब शायद ही कोई असर हो क्योंकि BRICS में शामिल देशों से अमेरिका के संबंध खराब ही होते जा रहे हैं। रूस और चीन के साथ पहले ही अमेरिका उलझा था, अब ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका और भारत के साथ भी अमेरिका के संबंध टैरिफ वॉर के मुद्दे पर खराब हो चुके हैं। इसी दौर में ब्रिक्स की अपनी मुद्रा का शोर सुनाई देने लगा है। ऐसे में सवाल उठता है—क्या ब्रिक्स की साझा मुद्रा वाकई संभव है?
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ब्रिक्स करेंसी की कल्पना सिर्फ एक आर्थिक प्रयोग नहीं
ब्रिक्स की अपनी करेंसी को लेकर इन दिनों अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफी चर्चा हो रही है। ब्राजील, रूस, भारत, चीन और दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों के समूह ब्रिक्स ने हाल के वर्षों में जिस तेजी से वैश्विक स्तर पर अपनी भागीदारी और प्रभाव बढ़ाया है, उसने अब डॉलर की वर्चस्व वाली आर्थिक व्यवस्था को चुनौती देने की एक कोशिश शुरू कर दी है। खासकर रूस-यूक्रेन युद्ध और पश्चिमी देशों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के बाद, रूस और चीन जैसे देशों ने वैकल्पिक वित्तीय व्यवस्थाओं की ओर झुकाव दिखाया है। 2023 में दक्षिण अफ्रीका के जोहान्सबर्ग में हुए ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के दौरान इस विचार को मजबूती मिली, जहां सदस्य देशों ने डॉलर के वर्चस्व को चुनौती देने के लिए वैकल्पिक मुद्रा पर गंभीरता से बात की। ब्रिक्स करेंसी की कल्पना सिर्फ एक आर्थिक प्रयोग नहीं है, बल्कि यह वैश्विक शक्ति संतुलन को नए सिरे से परिभाषित करने की रणनीति का हिस्सा है। डॉलर वर्तमान में न केवल वैश्विक व्यापार की मुख्य मुद्रा है, बल्कि दुनिया भर के केंद्रीय बैंकों में विदेशी मुद्रा भंडार का बड़ा हिस्सा भी डॉलर में ही रखा जाता है। लेकिन ब्रिक्स देश मानते हैं कि यह एक असंतुलित व्यवस्था है, जिसमें अमेरिकी नीतियों का बोझ बाकी देशों को भी उठाना पड़ता है। इस सोच के साथ उन्होंने डॉलर पर निर्भरता कम करने और एक साझा मुद्रा के जरिए वैकल्पिक व्यवस्था की शुरुआत का विचार सामने रखा।
BRICS करेंसी की संभावना
इस करेंसी को संभव बनाने के पीछे सबसे बड़ा तर्क यह है कि ब्रिक्स देश पहले से ही दुनिया की बड़ी और तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाएं हैं। चीन और भारत की विशाल उपभोक्ता अर्थव्यवस्था, रूस की ऊर्जा शक्ति, ब्राजील की कृषि क्षमता और दक्षिण अफ्रीका की खनिज संपदा- ये सभी मिलकर एक मजबूत आर्थिक मंच तैयार कर सकते हैं। यदि ये देश आपस में व्यापार के लिए डॉलर की बजाय किसी साझा करेंसी का इस्तेमाल करें, तो यह न केवल व्यापार को सहज बना सकता है, बल्कि अमेरिकी मुद्रा के प्रभुत्व को भी चुनौती दे सकता है। ब्रिक्स देशों की चर्चा का मुख्य फोकस अब तक राष्ट्रीय मुद्राओं में व्यापार को बढ़ावा देने और एक डिजिटल भुगतान ढांचे की ओर रहा है। फिलहाल साझा मुद्रा की दिशा में कोई ठोस निर्णय या रूपरेखा सामने नहीं आई है।
क्यों मुमकिन लगती है ब्रिक्स करेंसी?
ब्रिक्स करेंसी (BRICS Currency) की संभावना पर आज भले ही मतभेद हों, लेकिन कुछ अहम आर्थिक और भू-राजनीतिक कारक हैं, जो इसे मुमकिन बनाते हैं। यह विचार धीरे-धीरे सैद्धांतिक चर्चा से निकलकर संस्थागत तैयारी की दिशा में बढ़ता दिखाई दे रहा है।
- डॉलर पर निर्भरता कम करने की इच्छा- ब्रिक्स देशों के बीच यह साझा भावना है कि वैश्विक व्यापार और वित्तीय व्यवस्था में डॉलर की अत्यधिक भूमिका विकासशील देशों को नुकसान पहुंचा रही है। खासकर रूस पर लगाए गए पश्चिमी प्रतिबंधों के बाद यह सोच और तेज हुई है।
- स्थानीय मुद्राओं में व्यापार का बढ़ता रुझान- भारत और रूस, भारत और यूएई, चीन और ब्राजील जैसे देशों ने हाल के वर्षों में आपसी व्यापार के लिए स्थानीय मुद्राओं में लेनदेन को प्राथमिकता दी है। यह ब्रिक्स करेंसी की ओर एक कदम माना जा सकता है।
- नई आर्थिक ब्लॉक की भूमिका- अब ब्रिक्स का विस्तार हो चुका है और इसमें सऊदी अरब, ईरान, इथियोपिया, मिस्र और यूएई जैसे देश भी शामिल हो गए हैं। इन देशों की वैश्विक तेल और गैस व्यापार में बड़ी भूमिका है, जिससे ब्रिक्स करेंसी को मजबूत समर्थन मिल सकता है।
- डिजिटल करेंसी का उभरता चलन- चीन जैसे देश पहले से ही डिजिटल करेंसी (e-CNY) पर काम कर रहे हैं। एक डिजिटल ब्रिक्स करेंसी तकनीकी रूप से संभव हो सकती है, जो फिजिकल करेंसी की बाधाओं को पार कर सकती है।
ब्रिक्स करेंसी के सामने चुनौतियां
ब्रिक्स देशों की साझा करेंसी की अवधारणा हाल के वर्षों में खासा महत्व पा रही है, खासकर वैश्विक आर्थिक असंतुलन और डॉलर की निर्भरता के संदर्भ में। लेकिन इस वैकल्पिक मुद्रा को साकार करने की राह में कई गंभीर और जटिल चुनौतियां हैं, जो इसे अभी व्यावहारिक स्तर पर संभव नहीं बनने दे रहीं।
- आर्थिक विविधता और असमानता- ब्रिक्स देशों की आर्थिक संरचना, विकास दर, मुद्रास्फीति, मुद्रा मूल्य और मौद्रिक नीति एक-दूसरे से काफी भिन्न हैं। चीन एक निर्यात आधारित और दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, वहीं भारत एक विशाल घरेलू मांग वाली उभरती अर्थव्यवस्था है। रूस ऊर्जा निर्यात पर निर्भर है और ब्राजील कृषि पर, जबकि दक्षिण अफ्रीका खनिज संसाधनों पर टिका है। इस असमानता के चलते एक साझा मौद्रिक नीति बनाना बेहद कठिन हो जाता है, जो एक करेंसी यूनियन की मूल शर्त होती है।
- राजनीतिक और रणनीतिक मतभेद- ब्रिक्स के सदस्य देशों के बीच कई भू-राजनीतिक तनाव हैं। उदाहरण के लिए, भारत और चीन के बीच सीमा विवाद और विश्वास की कमी, रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण रूस पर लगे प्रतिबंध, चीन और अमेरिका के बीच चल रहा आर्थिक संघर्ष। इन सभी मुद्दों के चलते सामूहिक निर्णय लेने की प्रक्रिया बाधित होती है और साझा मुद्रा जैसी रणनीतिक योजना पर आम सहमति बनाना मुश्किल होता है।
- केंद्रीय बैंक और विनियामक ढांचे की अनुपस्थिति- यूरोपीय यूनियन में यूरो लागू करने से पहले यूरोपीय सेंट्रल बैंक (ECB) की स्थापना की गई थी। ब्रिक्स देशों के पास अभी कोई साझा केंद्रीय बैंक या नियामक संस्था नहीं है, जो मौद्रिक नीति, ब्याज दर या मुद्रा निर्गम पर नियंत्रण रख सके। बिना इस प्रकार के मजबूत ढांचे के साझा मुद्रा का संचालन और स्थायित्व दोनों खतरे में पड़ सकते हैं।
क्या कह रहे हैं सदस्य देश?
ब्रिक्स देशों की चर्चा का मुख्य फोकस अब तक राष्ट्रीय मुद्राओं में व्यापार को बढ़ावा देने और एक डिजिटल भुगतान ढांचे की ओर रहा है। फिलहाल साझा मुद्रा की दिशा में कोई ठोस निर्णय या रूपरेखा सामने नहीं आई है। ब्रिक्स नेताओं ने स्थानीय मुद्राओं का उपयोग बढ़ाने की बात स्वीकार की है, लेकिन साझा करेंसी अभी दूर की संभावना लगती है। हालांकि जिस तरह से वैश्विक प्रदृश्य तेजी से बदल रहा है और अमेरिका की दादागिरी बढ़ रही है, इसकी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।
- रूस (पुतिन की राय)- रुसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने स्पष्ट रूप से कहा है कि साझा ब्रिक्स करेंसी दीर्घकालिक लक्ष्य हो सकता है, लेकिन फिलहाल उस पर विचार नहीं किया जा रहा। उन्होंने सतर्क और क्रमिक दृष्टिकोण अपनाने पर जोर दिया है- पहले राष्ट्रीय मुद्राओं और डिजिटल भुगतान यंत्रों को मजबूत किया जाए।
- ब्राजील (लूला का दृष्टिकोण)- ब्राजील के राष्ट्रपति लूला दा सिल्वा साझा मुद्रा के पक्षधर रहे हैं। वे कहते हैं कि यह व्यापार में विकल्पों को बढ़ाएगा और उन्हें डॉलर के प्रभाव से मुक्त कर सकता है।
- भारत की सतर्कता- भारत ने इस प्रस्ताव पर एक दूरी बनाए रखी है। विदेश सचिव विनय क्वात्रा ने स्पष्ट किया कि ब्रिक्स चर्चा में मुख्य रूप से राष्ट्रीय मुद्राओं में व्यापार को अपनाना है, साझा मुद्रा नहीं। विदेश मंत्री जयशंकर ने स्पष्ट कहा कि भारत की डॉलर नीति विवादग्रस्त नहीं है- "हमने कभी डॉलर को टारगेट नहीं किया।"
- दक्षिण अफ्रीका की राय- दक्षिण अफ्रीका का रुख भी साझा मुद्रा के पक्ष में नहीं है। उनके वित्त मंत्री ने साफ कहा कि एक सामान्य मुद्रा भाषा में नहीं है- यह मौद्रिक नीति की स्वतंत्रता खोने जैसा होगा।
- चीन का दृष्टिकोण- चीन ने सार्वजनिक रूप से साझा मुद्रा का समर्थन नहीं किया, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली में सुधार की बात कही है और रॅन्मिन्बी को अधिक वैश्विक भूमिका देने की अपनी योजना जारी रखी है।
क्या टूटेगा डॉलर का दबदबा?
ब्रिक्स करेंसी की संभावना को लेकर सबसे बड़ा सवाल यही है- क्या यह अमेरिकी डॉलर के दशकों से चले आ रहे वैश्विक दबदबे को तोड़ पाएगी? इसका जवाब आसान नहीं है, लेकिन अगर हम ब्रिक्स देशों की मंशा, उनकी सामूहिक आर्थिक ताकत, और हाल के वर्षों में वैश्विक वित्तीय व्यवस्थाओं में आए बदलावों को देखें, तो साफ है कि यह एक गंभीर चुनौती बन सकती है। दरअसल, डॉलर का वैश्विक वर्चस्व दूसरे विश्व युद्ध के बाद से बना हुआ है। ब्रेटन वुड्स व्यवस्था के तहत डॉलर को वैश्विक रिजर्व करेंसी बना दिया गया और तब से यह अंतरराष्ट्रीय व्यापार, निवेश, ऋण और केंद्रीय बैंकिंग का प्रमुख माध्यम बना हुआ है। लेकिन समय के साथ इसकी आलोचना भी बढ़ी है। अमेरिकी फेडरल रिजर्व की नीतियों का असर पूरी दुनिया की मुद्राओं, ब्याज दरों और मुद्रास्फीति पर पड़ता है, भले ही उन देशों का अमेरिका से सीधा लेना-देना न हो। यहीं से ब्रिक्स करेंसी का विचार सामने आता है। यदि ब्रिक्स देश अपनी साझा करेंसी पर सहमत हो जाते हैं और उसे गंभीरता से लागू करने के लिए राजनीतिक, संस्थागत और तकनीकी ढांचा तैयार करते हैं, तो यह डॉलर पर निर्भरता को कम कर सकता है। खासकर, अगर ब्रिक्स देश इस करेंसी को आपस में व्यापार, ऊर्जा सौदों, और अंतरराष्ट्रीय निवेश के लिए उपयोग करना शुरू करें, तो डॉलर की पकड़ ढीली हो सकती है। चीन, रूस और ब्राज़ील जैसे देश पहले से ही अमेरिकी मुद्रा को दरकिनार करने की कोशिश कर रहे हैं। रूस, यूक्रेन युद्ध के बाद, डॉलर और यूरो से हटकर रूबल और युआन में व्यापार कर रहा है। चीन ने भी कई देशों से युआन में भुगतान स्वीकार करना शुरू कर दिया है। भारत ने भी कुछ रणनीतिक व्यापारों में रुपये का इस्तेमाल किया है। इन प्रवृत्तियों से साफ है कि ब्रिक्स देशों की एकजुटता अगर साझा मुद्रा के रूप में सामने आती है, तो वह डॉलर के लिए एक सैद्धांतिक और व्यावहारिक चुनौती हो सकती है।
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