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Language Row: महाराष्ट्र से लेकर तमिलनाडु तक... हिंदी विरोध की क्या है पॉलिटिक्स?

Language Row: मदर टंग यानी मातृ भाषा। यानी आप जिस जुबान में अपनी मां से बात करते हैं। उत्तर प्रदेश के अवध में रहने वाले लोगों की मातृभाषा अवधि है। बुंदेलखंड में रहने वालों की भाषा बुंदेली और पूर्वांचल में रहने वालों की मातृ भाषा भोजपुरी है। इसी तरह बिहार के मगध इलाके में मगधी, मिथिला के इलाके में मैथिली और पूर्वांचल से सटे इलाकों में भोजपुरी ही वहां की मातृ भाषा कहलाएगी।
Thackeray Brothers

मनसे प्रमुख राज ठाकरे (बाएं) और शिवसेना (यूबीटी) प्रमुख उद्धव ठाकरे (दाएं) (फोटो साभार: @ShivSenaUBT_)

Language Row: हिंदी नहीं बोला तो राज ठाकरे की मनसे के कार्यकर्ताओं ने एक व्यापारी को ताबड़तोड़ थप्पड़ जड़ दिए। इस किस्म की बदतमीजी क्यों देखने को मिल रही है? पहले इसके पीछे की राजनीतिक वजह जानते हैं। दरअसल, महाराष्ट्र में प्राइमरी क्लासेज में हिंदी को मराठी और अंग्रेजी के बाद तीसरी अनिवार्य भाषा बनाने के प्रस्ताव के खिलाफ पूरा विपक्ष आ गया। सरकार ने प्रस्ताव वापस ले लिया, लेकिन सड़कों पर हिंदी भाषियों के साथ इस तरह की बदसलूकी मुंबई में कई जगहों पर देखने को मिली। मसला था अपनी मातृ भाषा मराठी बनाम हिंदी का, लेकिन ये राजनीति कितनी खोखली है इसकी पोल हम इस वीडियो में खोलेंगे। हिंदी किसकी भाषा है ये भी समझेंगे। और हिंदी विरोध की पूरी राजनीति की परतें भी उधेड़ेंगे।

हिंदी किसकी मातृभाषा है ?

मदर टंग यानी मातृ भाषा। यानी आप जिस जुबान में अपनी मां से बात करते हैं। उत्तर प्रदेश के अवध में रहने वाले लोगों की मातृभाषा अवधि है। बुंदेलखंड में रहने वालों की भाषा बुंदेली और पूर्वांचल में रहने वालों की मातृ भाषा भोजपुरी है। इसी तरह बिहार के मगध इलाके में मगधी, मिथिला के इलाके में मैथिली और पूर्वांचल से सटे इलाकों में भोजपुरी ही वहां की मातृ भाषा कहलाएगी। हम हिंदी प्रदेशों की बात कर रहे हैं। चाहे राजस्थान हो या मध्य प्रदेश। हिंदी अमूमन किसी के घर में बोली जाने वाली पहली ज़ुबान नहीं हुआ करती थी। तो फिर हिंदी किसकी मातृभाषा है? हिंदी का विरोध तो महाराष्ट्र और तमिलनाडु, कर्नाटक जैसे कई राज्यों में हो रहा है या होता रहा है, लेकिन असल में कौन हैं, जो हिंदी को अपनी मातृभाषा कह सकते हैं? खड़ी बोली बोलने वाले चंद लोग। लेकिन हिंदी अब वो भाषा ही नहीं रही, जो सिर्फ खड़ी बोली से निकली थी। हिंदी में तमाम भाषाओं के शब्द घुले मिले हैं। इसके लिए पहले एक सुंदर शब्द इस्तेमाल किया जाता था हिंदुस्तानी। उर्दू और हिंदी की काल्पनिक बहस भी भाषा के इसी राजनीतिकरण के बाद ही उपजी। बहरहाल हम हिंदी विरोध की राजनीति को समझने की कोशिश करते हैं।

हिंदी किसकी मातृ भाषा है ये सवाल बस ये समझाने के लिए था कि हिंदी भारत की राजभाषा और संपर्क भाषा के तौर पर इसलिए बढ़ाई गई, क्योंकि इससे पूरे भारत को एक कॉमन ग्राउंड पर लाया जा सकता था भाषा के स्तर पर। क्योंकि भारत के बारे में तो कहा जाता है कि यहां हर थोड़ी दूरी पर वाणी और पानी दोनों बदलता रहता है। ऐसे में हिंदी विरोध की राजनीति को समझने से पहले आपको उस यात्रा को समझना होगा जहां से चलकर हिंदी भारत की राजभाषा बनी। राष्ट्रभाषा के तौर पर मशहूर हुई।

हिंदी की वकालत का मराठा इतिहास!

लगभग 120 साल पहले महाराष्ट्र और देश के बड़े नेता, पत्रकार और आजादी की लड़ाई के महान नायक लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने बंग-भंग के वक्त 1905 में वाराणसी की यात्रा की थी। वहां उन्होंने नागरी प्रचारिणी सभा के एक कार्यक्रम को संबोधित करते हुए जो कहा था, उसे महाराष्ट्र की हिंदी विरोधी राजनीति को जानना चाहिए। तिलक ने कहा था, ‘निसंदेह हिंदी ही देश की संपर्क और राजभाषा हो सकती है’ लेकिन हिंदी को संपर्क भाषा के तौर पर अपनाने की वकालत और पहले से हो रही थी। उसी महाराष्ट्र से जिसका हिस्सा पहले गुजरात भी हुआ करता था। गुजराती कवि नर्मदाशंकर दवे उर्फ नर्मद कवि ने लोकमान्य से करीब चौथाई सदी पहले 1880 में हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में आगे लाने का सुझाव दिया था। हिंदी को स्थापित करने की महात्मा गांधी की कोशिशों से भला कौन इनकार कर सकता है? बहुत कम लोगों को पता है कि गांधी जी ने 1917 में भरूच में आयोजित गुजरात शैक्षिक सम्मेलन में पहली बार सार्वजनिक तौर पर हिंदी की ताकत को स्वीकार किया था। उन्होंने कहा था, ‘भारतीय भाषाओं में केवल हिंदी ही एक ऐसी भाषा है, जिसे राष्ट्रभाषा के रूप में अपनाया जा सकता है।’ हिंदी के प्रचार को राष्ट्रीय कार्यक्रम मानने वाले काका कालेलकर भी मराठी भाषी ही थे। सतारा में जन्मे कालेलकर ने 1938 में कहा था, ‘राष्ट्रभाषा प्रचार हमारा राष्ट्रीय कर्म है।’ गांधी जी के शिष्य आचार्य विनोबा भावे भी ताजिंदगी हिंदी के लिए संघर्षरत रहे।

तमिलनाडु में हिंदी विरोध का इतिहास

हिंदी को लेकर तमिलनाडु की राजनीति का आक्रामक होना कोई नयी बात नहीं है। हिंदी के विरोध में जिस तरह स्टालिन ने रोजाना आधार पर मोर्चा खोल रखा है, वह 1965 के हिंदी विरोधी आंदोलन की याद दिला रहा है। संवैधानिक प्रावधानों की वजह से 26 जनवरी, 1965 को हिंदी को राजभाषा के तौर पर जिम्मेदारी संभालनी थी, जिसके विरोध में सीएन अन्नादुरै की अगुवाई में पूरी द्रविड़ राजनीति उतर आयी थी। तब हिंदी विरोध के मूल में तमिल उपराष्ट्रीयता थी। उसके लिए तब यह साबित करना आसान था कि उस पर हिंदी थोपी जा रही है। लेकिन आज हालात बदल चुके हैं। आज सबके हाथों में मोबाइल है। आप दुनिया की तमाम भाषाओं को सीख सकते हैं। उसमें काम कर सकते हैं।

लेकिन स्टालिन को लगता है कि यदि उन्होंने त्रिभाषा फॉर्मूला स्वीकार कर लिया, नयी शिक्षा नीति को राज्य में लागू होने दिया तो जिस द्रविडियन राजनीति वो या उनके साथी स्थानीय दल करते हैं, उसका प्रभाव कम होने लगेगा। इससे स्थानीय राजनीति में उनका वर्चस्व कमजोर होगा और हो सकता है कि एक दौर ऐसा आये कि दूसरे राज्यों की तरह यहां भी राष्ट्रीय राजनीति हावी हो जाए। साल 1967 के विधानसभा चुनावों में करारी हार के बाद से कांग्रेस यहां की राजनीति से बाहर है। तब से वह कभी डीएमके, तो कभी एआइएडीएमके की पिछलग्गू बनी रही है। कुछ ऐसी ही स्थिति भारतीय जनता पार्टी की भी रही है। तमिलनाडु में अगले साल विधानसभा चुनाव होने हैं। स्टालिन को लग रहा है कि इस बार बीजेपी के जरिये राष्ट्रीय राजनीति राज्य में अपनी ताकतवर पहुंच बना सकती है। के अन्नामलाई जैसे लोकप्रिय चेहरे बीजेपी के पास हैं। अगर ऐसा होता है तो निश्चित है कि द्रविड़ राजनीति के वर्चस्व को निर्णायक चुनौती मिलेगी। यही डर उन्हें हिंदी विरोध की ताजा आंच को जलाने के लिए मजबूर कर रहा है। यहीं संक्रमण कर्नाटक तक पहुंचा है। कर्नाटक रक्षण वेदिके ने हिंदी विरोधी अभियान चलाया, तो 2019 में हिंदी दिवस न मनाने के लिए भी राज्य में अभियान चला। एक नेशनल बैंक के मैनेजर से जबरदस्ती हिंदी बोलने के लिए हुज्जत करने का दृश्य हो या किसी ऑटोवाले का किसी हिंदी भाषी लड़की को थप्पड़ मारना, इन्हें कर्नाटक में हिंदी विरोधी आंदोलन का ही प्रभाव कहा जा सकता है।

ठाकरे बंधुओं का आखिरी दांव!

वहीं महाराष्ट्र में राजनीतिक हाशिए पर जा चुके ठाकरे बंधु हिंदी विरोध के नाम पर सालों बाद एक साथ आ गए। लेकिन महाराष्ट्र में हिंदी विरोध को लेकर सवाल यह भी है कि राज ठाकरे की ताकत हजारों करोड़ का कारोबार करने वाली हिंदी फिल्मों के गढ़ में जाने से क्यों हिचकती है? ऐसे ही, कर्नाटक हो या तमिलनाडु, वहां के फिल्म निर्माताओं को जब सौ, दो सौ या पांच सौ करोड़ क्लब में शामिल होना होता है, तो हिंदी के बाजार पर ही उनका ध्यान जाता है। हिंदी के बाजार से प्यार और हिंदी भाषियों से दुर्व्यवहार, दोनों एक साथ नहीं चल सकते। वहीं इस तरह की घटनाएं आम लोगों की ज़हनियत को भी प्रभावित करता है। देश की एकता के तार को खंडित करता है। हिंदी विरोधी राजनेताओं को इस बात पर भी सोचना होगा कि हिंदी को संपर्क भाषा इसलिए स्वीकार किया गया, क्योंकि वह देश को जोड़ने की क्षमता रखती है। जबकि आज की राजनीति अपनी स्थानीय भाषाओं के नाम पर जिस भावना को फैला रही है, उससे देश में अलगाव और बैर की प्रक्रिया को बढ़ावा मिल सकता है। राजनीति चाहे जिस पक्ष की हो, उसे हिंदी के विरोध को इस नजरिये से देखना होगा। हिंदी विरोधी पॉलिटिक्स के पीछे असल गेम सत्ता का है। लेकिन इसका शिकार आम लोग होते हैं। लिहाजा आम लोगों को भी ऐसी किसी भी गुंडई का विरोध करने खुद सामने आना होगा। आखिरकार ये देश आम लोगों से है चंद छुटभैया नेताओं से नहीं।

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    AdarshShukla author

    सत्याग्रह की धरती चंपारण से ताल्लुक रखने वाले आदर्श शुक्ल 10 सालों से पत्रकारिता की दुनिया में हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय और IIMC से पत्रकारिता की पढ़ा...और देखें

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