2006 मुंबई ट्रेन धमाके के ज़िंदा गवाह: गुरु पूर्णिमा की शाम, जो जिंदगी भर का जख्म बन गई

2006 मुंबई ट्रेन धमाके के ज़िंदा गवाह, प्रभाकर मिश्रा
मुंबई: 1 जुलाई, 2006 को पश्चिमी लाइन पर विभिन्न स्थानों पर मुंबई की कई लोकल ट्रेन में सिलसिलेवार तरीके से सात विस्फोट किए गए थे जिनमें 180 से अधिक लोग मारे गए थे और कई अन्य घायल हुए थे। बंबई उच्च न्यायालय ने 19 साल बाद सोमवार को सभी 12 आरोपियों को बरी कर दिया और कहा कि अभियोजन पक्ष मामले को साबित करने में पूरी तरह विफल रहा और यह विश्वास करना मुश्किल है कि उन्होंने अपराध किया है।
मुंबई की लोकल ट्रेनों में हुए श्रृंखलाबद्ध बम धमाकों ने पूरे देश को हिला कर रख दिया। इसी दिन गुरु पूर्णिमा थी,एक ऐसा पावन अवसर जब लोग अपने शिक्षकों और मार्गदर्शकों के प्रति आभार प्रकट करते हैं। लेकिन उसी शाम, एक शिक्षक प्रोफेसर प्रभाकर मिश्रा के जीवन में अंधकार छा गया। वे भी इस भयावह हमले के शिकार हुए, और उनका जीवन हमेशा के लिए बदल गया। प्रोफेसर प्रभाकर मिश्रा, वर्ली स्थित एक कॉलेज में एक शिक्षक थे। वे वर्षों से मुंबई की लोकल ट्रेन से सफर करते आ रहे थे।
11 जुलाई 2006: एक भयानक शाम
गुरु पूर्णिमा की शाम, प्रभाकर मिश्रा ने रोज़ की तरह ग्रांट रोड स्टेशन से विरार फास्ट लोकल ट्रेन पकड़ी। ट्रेन का भीड़भाड़ भरा पहला दर्जा उनका नियमित डिब्बा था। वे दहिसर स्टेशन पर उतरने की तैयारी में थे, इसलिए पहले से ही दरवाज़े के पास खड़े थे। ट्रेन जैसे ही माटुंगा और माहिम स्टेशन के बीच पहुँची, समय हुआ लगभग 6:24 PM, उसी दौरान एक ज़ोरदार धमाका हुआ , ठीक उसी कोच में जिसमें वे सवार थे।
धमाके के बाद: एक भयावह मंजर
धमाके की आवाज़ से पहले कुछ समझ पाते, प्रभाकर जी को ऐसा झटका लगा कि वे ट्रेन से नीचे गिर पड़े। उनका शरीर मृत यात्रियों के नीचे दब गया। चारों ओर धुंआ, चीत्कार, और लाशों का ढेर यह दृश्य शब्दों से परे था। इस ट्रेन में सवार 28 लोगों की मौत हुई तो मिश्रा समेत 127 लोग ज़ख़्मी हुए। उन्हें लगा कि अब जीवन समाप्त हो गया है। लेकिन कुछ देर बाद, स्थानीय लोगों और बचाव कर्मियों ने उन्हें मलबे से बाहर निकाला।
बाएं कान की सुनने की क्षमता पूरी तरह समाप्त हो चुकी थी। यह क्षति स्थायी थी। और दायें कान की भी क्षमता कम हो गई। शरीर के विभिन्न हिस्सों में खरोचें और आघात थे। लेकिन जो सबसे गहरी चोट थी — वह मन की थी। रोज़ रात को उन्हें वही दृश्य याद आता, जिससे वे घंटों सो नहीं पाते थे।
वे कई महीनों तक Post-Traumatic Stress Disorder (PTSD) जैसी स्थिति से जूझते रहे।
एक प्रोफेसर के लिए सुनना और संवाद करना सबसे अहम होता है। लेकिन एक कान की स्थायी बहरापन ने उनकी नौकरी पर सीधा असर डाला। पढ़ाने में परेशानी होने लगी, छात्रों की आवाज़ें स्पष्ट सुनाई नहीं देती थीं। धीरे-धीरे उनकी कक्षाओं से दूरी शुरू हुई। यह उनका निर्णय नहीं था, यह उन्हें हालातों ने मजबूर किया। सरकार की ओर से उन्हें 50 हज़ार रुपए रेलवे से और 50 हज़ार रुपए सरकार से मामूली मुआवज़ा मिला, लेकिन इस तरह की गहरी क्षति की भरपाई पैसों से नहीं हो सकती।
बचा तो जरुर लेकिन सबकुछ खत्म हो गया
मैं बच गया, लेकिन उस दिन मैं जो कुछ था वो सब खत्म हो गया। ट्रेन में चढ़ना आज भी डराता है। मैं अब भी दरवाज़े के पास खड़ा नहीं हो पाता।
प्रोफेसर प्रभाकर मिश्रा न सिर्फ़ उस आतंकवादी हमले के जीवित गवाह हैं, बल्कि उस व्यवस्था के भी जो आपात स्थिति के बाद पीड़ितों को भूल जाती है।
कोर्ट के फैसले से नाखुश
कोर्ट के फैसले के बाद वह इस फैसले से काफ़ी नाखुश हैं । उन्होंने कहा कि उन्हे फैसले से काफ़ी दुख हुआ । ये इंसाफ़ नहीं मज़ाक़ है । जाँच एजेंसी से भी नाराज़गी है जो सबूत इकट्ठा नहीं कर पाये । उन्होंने कहा कि बड़े बड़े वकीलों से नाराज़गी है जो आरोपियों की पैरवी करते हैं और उन्हें बचा ले जाते हैं।
2015 में विशेष अदालत ने 12 लोगों को दोषी ठहराया था
वर्ष 2015 में एक विशेष अदालत ने इस मामले में 12 लोगों को दोषी ठहराया था, जिनमें से पांच को मौत की सज़ा और बाकी सात को आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई गई थी। अपील की सुनवाई लंबित रहने के दौरान एक दोषी की मृत्यु हो चुकी है।
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