Kuch Khattaa Ho Jaay Review: कुछ खट्टा हो जाए नहीं बल्कि फिल्म का नाम कुछ अझेल हो जाए होना चाहिए था
Kuch Khattaa Ho Jaay Review: गुरू रंधावा की डेब्यू फिल्म कुछ खट्टा हो जाय रिलीज हो गई है। इसमे गुरू के साथ अनुपम खेर, सई मांजरेकर, इला अरुण और पारितोष त्रिपाठी अहम रोल में हैं। पढ़िए फिल्म का रिव्यू।

Kuch Khattaa Ho Jaay Review.
कास्ट एंड क्रू
हिंदी फिल्म इंडस्ट्री यानी बॉलीवुड में सैकड़ों फिल्म बनती हैं। इसमें छोटे प्रोडक्शन हाउस से लेकर बड़े बैनर की फिल्में शामिल होती हैं। इन फिल्मों से कुछ नए चेहरे डेब्यू भी करते हैं। इंडस्ट्री में एक चलन भी देखने को मिल रहा है। जो एक्टर है वह सिंगिंग कर रहा है और जो सिंगर है वह एक्टिंग कर रहा है। थिएटर यानी रंगकर्म में यह कहा जाता है असली एक्टर वही है, जिसे अभिनय के साथ-साथ सुर में गाना और रिदम में नाचना आता हो। पर यहां थोड़ा उल्टा हो रहा, टेक्नोलॉजी की मदद से। खैर बॉलीवुड की कई ऐसी फिल्में बनती हैं जिनका कोई बज नहीं होता, लेकिन फिल्म अच्छी होती है। ऐसी ही एक और फिल्म कुछ खट्टा हो जाए है। इस फिल्म का ना तो बज है और ना ही दर्शकों के बीच एक्साइटमेंट। इस फिल्म के प्रिव्यू की हालत यह थी कि सिनेमाघर में महज 8-10 लोग ही रहे होंगे। इसे देखने के बाद ऐसा लगा कि फिल्म निर्माताओं और डायरेक्टर की क्या मजबूरी रही होगी?
कंफ्यूजन से भरी कहानी
फिल्म की कहानी एक बड़े रईस और बिजनेस वाले परिवार की है। आगरा का चावला परिवार पुश्तैनी मिठाई की दुकान है। परिवार की आमदनी इसी से होती है। चावला परिवार में एक दादा हैं, जिनकी इच्छा है कि वह अपने पोते के बच्चे को देखें। इसके लिए वह अपने पोते यानी हीर चावला से शादी के लिए कहते हैं। हीर के दो चाचा हैं, एक चाहते हैं कि भतीजा कलेक्टर बने और दूसरे उसे पहलवान बनाना चाहते हैं। हालांकि हीर इन दोनों में ही जीरो रहता है। उसे इरा मिश्रा से प्यार है। वह उसके चक्कर में हर वह काम करता है जो इरा को पसंद को है। इरा का पहला प्यार IAS बनना है। कहानी में एक ट्विस्ट है। वह यह कि इरा की छोटी बहन शादी करना चाहती है, लेकिन उसके प्रेमी के घरवाले कहते हैं कि पहले बड़ी बेटी की शादी हो। इस झंझट से उबरने के लिए इरा अपने दोस्त हीर को किस्सा बताती है। यहां हीर कहता है कि तुम मेरे से शादी करो, मैं IAS बनने से नहीं रोकूंगा। होता भी ऐसा है, लेकिन कहानी में यहां से शुरू होता है कंफ्यूजन जो अंत तक समझ नहीं आता है।
एक्टिंग में नहीं होता ऑटो ट्यून
हीर चावला का रोल गुरू रंधावा ने निभाया है। यह उनका एक्टिंग डेब्यू है, अगर वह यह नहीं भी करते तो चल जाता। ऐसा नहीं था कि गुरू के एक्टिंग ना करने से सिनेमा जगत को भारी नुकसान होने वाला था। गुरू अगर अपने सिंगिंग करियर पर ही फोकस करते तो बेहतर होता। उन्हें शायद यह नहीं पता होगा कि एक्टिंग में कोई ऑटो ट्यून नहीं होता है। इमोशन से लेकर डायलॉग डिलवेरी तक आपको सधे हुए अंदाज से करनी होती है। फिल्म की कहानी की ही तरह गुरू की एक्टिंग भी अझेल है। सई एम मांजरेकर ने इस फिल्म में इरा के किरदार को निभाया है। उन्होंने अपने काम को अच्छे ढंग से निभाया है। हालांकि सवाल उनसे यह भी हो सकता है कि इस फिल्म को चुनने की उनकी क्या वजह थी? या फिर कोई मजबूरी? एक अच्छी एक्ट्रेस के लिए ऐसा काम बेहद बुरा हो सकता है। अनुपम खर ने दादा का किरदार निभाया है, वह अपने काम में परफेक्ट हैं। फिल्म में इला अरुण की भी एक्टिंग मजबूरन वाली लगती है। हालांकि फिल्म को पारितोष त्रिपाठी ने बड़े ही अच्छे ढंग से संभाला है। उनका स्क्रीन प्रजेंस थोड़ा सुकून देता है। उनके डायलॉग्स और कॉमिक टाइमिंग आपको हंसाती है।
जिसके मन में जो आया लिख डाला
फिल्म को तीन राइटर राज सलूजा, निकेत पांडेय और विजय पाल सिंह ने लिखा है। फिल्म की कहानी देख ऐसा लगता है कि तीनों के दिमाग में जो कहानी आती गई वह उसे लिखते गए। कहां क्या सीन आएगा और उसका कहानी से वास्ता होगा? यह उन्हें भी नहीं पता। शोभित सिन्हा द्वारा लिखे गए डायलॉग्स भी काफी क्रिंज से हैं। वह ऐसी पिकअप लाइन हीरो से बुलवाते हैं, जो आज का कोई आशिक भी नहीं बोलेगा। इसे अशोक जी ने डायरेक्ट किया है। उन्होंने इस कहानी के पढ़कर हां कैसी की यह भी सोचने का विषय है। फिल्म की कहानी की ही तरह डायेरक्शन भी है।
एंटरटेनमेंट लवर भी पीट लेंगे माथा
अगर आप सिनेमा लवर हैं तो इसे देखने की हिम्मत ना करें। आपका सिनेमा और एक्टिंग से भरोसा उठ जाएगा। गुरू रंधावा से उम्मीद है कि वह इस फिल्म को देखेंगे और दोबारा एक्टिंग ना करने का निर्णय लेंगे। कुछ खट्टा हो जाय में अपनी एक्टिंग देखने के भी अभिनय करने का सोचेंगे तो प्रलय भी आ सकता है। फिल्म में कहानी, एक्टिंग, इमोशन या फिर एंटरटेनमेंट देखने जाते हों तो इसे ना देखें। खैर...कुछ खट्टा हो जाय पर मेरा अनुभव यहीं तक।
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आर्टिकल की समाप्ति
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