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AIADMK में अंदरूनी कलह, क्या तमिलनाडु में OPS vs EPS की लड़ाई BJP के लिए कैसे बन सकती है वरदान?

2016 में जयललिता के निधन के बाद से ही भारतीय जनता पार्टी तमिलनाडु की विपक्षी राजनीति में सक्रिय रही है। बीजेपी की पुरजोर कोशिश तमिलनाडु में पैठ बनाने की है। AIADMK में लगातार बढ़ती दरार आखिर कैसे बीजेपी को फायदा पहुंचा सकती है जानिए।
Tamilnadu

क्या तमिलनाडु AIADMK में कलस से BJP को होगा फायदा ?(PTI)

तमिलनाडु की राजनीति हमेशा से ही नाटकीय रही है। सिनेमा, नुक्कड़ सभाओं और निजी पंथों ने इस राज्य को भारत का एक अनूठा राजनीतिक रंगमंच बना दिया है। इन दिनों राज्य के मुख्य विपक्षी दल अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (AIADMK) के भीतर चल रहा मौजूदा उथल-पुथल भी बेहद नाटकीय नजर आ रहा है। पार्टी को इस स्थिति कीमत अपने पतन से चुकानी पड़ सकती है। पिछले एक साल में AIADMK एक अनुशासित विपक्ष से कम और एक विभाजित सदन की तरह ज्यादा दिख रही है। पार्टी में एक के बाद एक दलबदल या निष्कासन हो रहे हैं। वरिष्ठ नेता पार्टी छोड़ रहे हैं, दिग्गज नेताओं को दरकिनार किया जा रहा है, और जमीनी स्तर पर खामोश विद्रोह सुलग रहे हैं। कुल मिलाकर, पार्टी भंवर में फंसी हुई है और कार्यकर्ताओं को चमत्कार की उम्मीद है।

AIADMK से वफादार नेताओं की विदाई

पार्टी इस स्थिति में सबसे नया मोड़ हाल ही में तब आया जब वरिष्ठ नेता केए सेंगोट्टैयन को इसलिए बाहर का रास्ता दिखा दिया गया क्योंकि उन्होंने पार्टी के भीतर सुलह की बात कही थी। के सेंगोट्टैयन, एमजी रामचंद्रन के जमाने से उनके वफादार रहे हैं। इस नेता ने पार्टी से निष्कासित सहयोगियों के साथ सुलह की अपील करने का साहस किया था। एडापड्डी के पलानीस्वामी (EPS) को ये नागवार गुजरा। सेंगोट्टैयन को पार्टी के सभी पदों से हटा दिया गया। यह कदम अन्नाद्रमुक की नई आचार संहिता का ऐलान था कि असहमति अब पार्टी से विद्रोह है। इसके तुरंत बाद सेंगोट्टैयन के समर्थकों ने सामूहिक इस्तीफा दे दिया।

वरिष्ठ नेता पार्टी क्यों छोड़ रहे हैं?

2026 के विधानसभा चुनाव से पहले वरिष्ठ नेता पार्टी क्यों छोड़ रहे हैं? कोई भी उस पार्टी को नहीं छोड़ता जिसके बारे में उसे लगता है कि उसमें अभी भी संभावनाएं हैं। अनवर राजा और मैत्रेयन कोई नए नेता नहीं, दशकों का अनुभव रखते हैं। उनकी विदाई ईपीएस के नेतृत्व पर सवाल उठाते हैं। मुद्दा केवल द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) के खिलाफ ईपीएस की रणनीति का नहीं है, बल्कि AIADMK पारिवारिक कलह को खत्म करने से इनकार करने का है। कई वरिष्ठ नेताओं का मानना है कि पार्टी का अस्तित्व ओ पन्नीरसेल्वम (OPS), वीके शशिकला या टीटीवी दिनाकरन जैसे हाशिये पर पड़े नेताओं को वापस लाने में निहित है, चाहे उनकी विरासत कितनी भी विवादास्पद क्यों न हो।

AIADMK कई संकटों से घिरी है। एकता ही पार्टी को चुनावी रूप से मजबूत बना सकती है। लेकिन इसकी संभावना फिलहाल नहीं दिखती। शशिकला अब भी इस बात पर अड़ी हैं कि वही सही महासचिव हैं। उधर, ओपीएस के वफादार उनकी बहाली का सपना देख रहे हैं। वहीं, दिनाकरन उन प्रभावशाली क्षेत्रों पर नियंत्रण रखते हैं जिन पर ईपीएस का कोई कंट्रोल नहीं है। उन्हें वापस लाने से वोटों का आधार बढ़ सकता है, लेकिन तब ईपीएस की स्थिति निश्चित रूप से कमजोर हो जाएगी।

तमिलनाडु में बीजेपी की रणनीति

अन्नाद्रमुक के संकट को सिर्फ पारिवारिक कलह के रूप में देखना इस बड़े मुद्दे को नजरअंदाज करना होगा। 2016 में जयललिता के निधन के बाद से ही भारतीय जनता पार्टी तमिलनाडु की विपक्षी राजनीति में सक्रिय रही है। बीजेपी की पुरजोर कोशिश तमिलनाडु में पैठ बनाने की है। मौजूदा हालात उसकी रणनीति पर फिट बैठते हैं। पार्टी को AIADMK की कीमत पर ही तमिलनाडु में जगह मिल सकती है। AIADMK में लगातार बढ़ती दरार आखिर कैसे बीजेपी को फायदा पहुंचा सकती है जानिए।

गहराता नेतृत्व संकट

अन्नाद्रमुक लगातार वरिष्ठ नेताओं को खो रही है और जमीनी स्तर पर विद्रोह का सामना कर रही है, जो 2026 के विधानसभा चुनाव से पहले गहराते आंतरिक संकट को दर्शाता है। ईपीएस का सुलह से इनकार पार्टी के पतन को तेज कर रहा है।

बीजेपी का गुप्त प्रभाव

असंतुष्ट अन्नाद्रमुक नेताओं के साथ बैठकों सहित बीजेपी की पर्दे के पीछे की रणनीति, तमिलनाडु में विपक्ष को विभाजित रखने में उसके बढ़ते प्रभाव और रणनीतिक समझदारी को दर्शाती हैं। आज ही ईपीएस दिल्ली पहुंचे हैं और अमित शाह से मुलाकात भी करेंगे।

वैचारिक बदलाव स्पष्ट

बीजेपी और आरएसएस के साथ बढ़ती निकटता के साथ अन्नाद्रमुक की पारंपरिक द्रविड़ पहचान थोड़ी कमजोर पड़ रही है। इसकी एक दशक पहले त ककल्पना भी नहीं की जा सकती थी।

2026 के चुनाव के निहितार्थ

लगातार अंदरूनी कलह और बीजेपी की रणनीतिक चालें 2026 के विधानसभा चुनावों से पहले अगर अन्नाद्रमुक एकजुट नहीं हुई तो इसका फायदा बड़े पैमाने पर डीएमके को होगा, लेकिन बीजेपी भी अपना आधार मजबूत करने में कामयाब होगी।

क्या बीजेपी का दांव सही बैठा?

फरवरी 2017 में यह व्यापक रूप से माना गया था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के विचारक एस गुरुमूर्ति के जरिए बीजेपी ने शशिकला और ओपीएस के बीच दरार को गहरा करने में भूमिका निभाई थी। बाद में उसी बीजेपी ने ओपीएस और ईपीएस के बीच एक असहज समझौता करवाया। तत्कालीन राज्यपाल सी विद्यासागर राव ने मध्यस्थ की भूमिका निभाई और सुनिश्चित किया कि अन्नाद्रमुक सरकार आंतरिक उथल-पुथल से उबरे और अपना कार्यकाल पूरा करे। उस समय, भाजपा की प्राथमिकता स्पष्ट थी कि कम संगठनात्मक मौजूदगी वाले राज्य में कोई अस्थिरता न हो। यह रणनीति कारगर रही। अन्नाद्रमुक के असंतुष्ट नेता अक्सर दिल्ली की निजी यात्राएं करने दिल्ली निकल पड़ते हैं, जिनका अंत अमित शाह, निर्मला सीतारमण या अन्य बीजेपी नेताओं से मुलाकातों के साथ होता है। इसका सबसे ताजा उदाहरण हाल ही में तब देखने को मिला जब सेंगोट्टैयन, जिन्हें सभी पदों से हटा दिया गया था, 8 सितंबर को दिल्ली में अमित शाह और निर्मला सीतारमण से मिले।

क्या सेंगोट्टैयन बनेंगे नया विकल्प?

अब इस बात को लेकर अटकलें तेज हैं कि क्या ईपीएस सिर्फ एक विकल्प हैं। क्या बीजेपी चुपचाप सेंगोट्टैयन को एक ज्यादा लचीले विकल्प के रूप में तैयार कर रही है? उनकी वरिष्ठता और हाल ही में उनका रवैया उन्हें ईपीएस की तानाशाही प्रवृत्ति के लिए एक विकल्प बनाता है। इस धारणा को और बल राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) छोड़ने के बाद दिनाकरन की हालिया टिप्पणी से मिलता है कि वह मुख्यमंत्री के रूप में ईपीएस के अलावा किसी को भी स्वीकार करने के लिए तैयार थे। बहरहाल, बीजेपी के लिए, यह फायदेमंद है। एक कमजोर ईपीएस AIADMK को दिल्ली पर निर्भर बना सकता है। अगर ईपीएस नाकाम रहे, तो सेंगोट्टैयन जैसे लचीले विकल्प को आगे बढ़ाया जा सकता है। किसी भी तरह, बीजेपी अपनी पकड़ मजबूत बनाए रखना चाहेगी।

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अमित कुमार मंडल author

पत्रकारिता के सफर की शुरुआत 2005 में नोएडा स्थित अमर उजाला अखबार से हुई जहां मैं खबरों की दुनिया से रूबरू हुआ। यहां मिले अनुभव और जानकारियों ने खबरों ...और देखें

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