अमेरिका और चीन में वर्चस्व की लड़ाई है। भविष्य में दुनिया में किसकी चलेगी लड़ाई इस बात की है। कभी सुपरपावर रहा रूस भी अमेरिका के खिलाफ है। रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद मास्को बीजिंग के करीब आया है। अमेरिकी और पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों ने बीजिंग पर उसकी निर्भरता बढ़ा दी है। चीन, रूस से सबसे ज्यादा तेल खरीदता है।
Message from SCO Meeting : सितंबर के पहले सप्ताह के शुरुआती दिनों में चीन के तिआनजिन और बीजिंग में जो नजारा दिखा, उससे अमेरिका की बेचैनी बढ़नी शुरू हो गई है। एक सितंबर को शंघाई सहयोग संगठन (SCO) की बैठक से पहले और बाद की तस्वीरों ने पूरी दुनिया का ध्यान अपनी तरफ खींचा। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग, रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन और भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बीच मेलजोल, हंसी और अपनेपन के हाव-भाव ने एक अलग तरह की मोर्चेबंदी पेश की। तीनों राष्ट्राध्यक्षों की इस मिलनसारिता एक एकजुटता को अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भले ही कमतर दिखाने की कोशिश की है लेकिन अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर करीबी नजर रखने वाले एक्सपर्ट वैश्विक स्तर पर एससीओ बैठक में तीनों नेताओं की मुलाकात को एक बड़ा घटनाक्रम मान रहे हैं। यह भी कहा जा रहा है कि वैश्विक मंच पर अमेरिकी दबदबे को चुनौती देने की शुरुआत हो चुकी है।
तिआनजिन में SCO समिट में मोदी, जिनपिंग और पुतिन। तस्वीर- AP
दुनिया एकध्रुवीय न होकर बहु-ध्रुवीय बन गई है
अमेरिका दुनिया का सबसे ताकतवर मुल्क है। वह सबसे बड़ी आर्थिक एवं सैन्य महाशक्ति है, इसमें कोई दो राय नहीं है लेकिन उसकी यह ताकत पहले जैसी नहीं रही। वह 70, 80 और 90 के दशक वाला अमेरिका नहीं है कि उसके एक आदेश या फरमान पर दुनिया इधर से उधर हो जाती थी। आज दुनिया एकध्रुवीय न होकर बहु-ध्रुवीय हो गई है। यानी अमेरिका तो है ही लेकिन अब उसे आर्थिक, सैन्य शक्ति के रूप में चुनौती देने के लिए चीन खड़ा हो गया है। अमेरिका और चीन में वर्चस्व की लड़ाई है। भविष्य में दुनिया में किसकी चलेगी लड़ाई इस बात की है। कभी सुपरपावर रहा रूस भी अमेरिका के खिलाफ है। रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद मास्को बीजिंग के करीब आया है। अमेरिकी और पश्चिमी देशों के प्रतिबंधों ने बीजिंग पर उसकी निर्भरता बढ़ा दी है। चीन, रूस से सबसे ज्यादा तेल खरीदता है। रूस की आय का बहुत बड़ा जरिया उसका तेल ही है। चीन और भारत दोनों उससे बड़ी मात्रा में तेल खरीदते हैं।
एससीओ बैठक के बाद चीन ने रूस के साथ एक बड़ा गैस पाइप लाइन समझौता किया। यह समझौता अमेरिका को स्पष्ट संदेश है कि वह टैरिफ की धमकियों से डरने वाला नहीं है, वह आने वाले दिनों में उससे और ज्यादा तेल खरीदेगा। जाहिर है कि इससे मास्को-बीजिंग और करीब आएंगे। दरअसल, चीन बीते कई दशकों से अमेरिका के खिलाफ एक बड़ा मोर्चा तैयार करने की कोशिश कर रहा था लेकिन उसमें उसे अपेक्षित सफलता नहीं मिल पा रही थी लेकिन ट्रंप के टैरिफ बखेड़े ने भारत जैसे संप्रभु देशों को एक दूसरी पंक्ति में आने के लिए एक तरह से मजबूर किया है। भारत जो कि अमेरिका हिंद प्रशांत क्षेत्र में सबसे बड़ा रणनीतिक साझेदार है और गत दशकों में दोनों देशों के रिश्ते अब तक के अपने सबसे सुनहरे दौर में प्रवेश कर गए थे, उस पर टैरिफ का धब्बा लग गया है। एक्सपर्ट्स का कहना है कि ट्रंप के टैरिफ प्रहार ने अमेरिका-भारत के आपसी संबंधों को भारी नुकसान पहुंचाया है जिसकी भरपाई करने में एक लंबा वक्त लग सकता है। तो वहीं, ट्रंप इशारा कर चुके हैं कि अभी वह यहीं रुकने वाले नहीं है, अभी रूस से तेल खरीदने पर वह दूसरे और तीसरे चरण का जुर्माना लगा सकते हैं।
ठहरे हुए पानी में ट्रंप ने टैरिफ का पत्थर फेंका
विगत दशकों में भारत, रूस के करीब रहते हुए अमेरिका के नजदीक आया लेकिन चीन के साथ उसकी पारंपरिक दूरी बनी रही। 2020 के गलवान झड़प के बाद चीन के साथ रिश्तों में और तल्खी और कड़वाहट आ गई। वास्तविक नियंत्रण रेखा यानी जिसे एलएसी कहते हैं वहां दोनों देशों की सेनाएं आमने-सामने आ गईं। चीन के साथ रिश्ते को कमतर करते हुए भारत सरकार ने बीजिंग के खिलाफ कई प्रतिबंधात्मक कदम उठाए। यहां तक कि दोनों देशों के बीच सीधी उड़ान बंद हो गई। चीन के बहुत सारे एप भारत में प्रतिबंधित हुए। बाद में लद्दाख में गतिरोध वाले कुछ बिंदुओं से दोनों देशों की सेना वापस पीछे लौटी तो आपसी संबंधों में एक सकारात्मक बदलाव दिखना शुरू हुआ। फिर भी कूटनीतिक एवं राजनयिक स्तर पर आपसी मेलजोल और सहयोग बढ़ाने के लिए कोई बहुत बड़ी पहल नहीं हुई लेकिन ट्रंप के टैरिफ वार ने रिश्तों के ठहरे हुए पानी में पत्थर फेंकने का काम किया। टैरिफ की वजह से उसमें हलचल और हिलोरें शुरू हो गईं। टैरिफ के इस हिलोर ने दो विपरीत किनारे पर रहने वाले भारत और चीन को करीब लाने का काम किया है। यानी जो काम खुद शी जिनपिंग नहीं कर पाए, उसे ट्रंप ने कर दिखाया।
एससीओ समिट में पीएम मोदी, राष्ट्रपति जिनपिंग। तस्वीर-AP
तस्वीर साभार : AP
राष्ट्रीय सुरक्षा नीति में रूस नहीं चीन 'शत्रु'
अमेरिका विदेश नीति का जोर भारत के चीन के करीब न जाने देने का रहा है। दशकों से यूएस इसी नीति पर आगे बढ़ता रहा है। रूस के साथ भारत की करीबी से उसे कभी भी बहुत ज्यादा परेशानी नहीं रही क्योंकि उसकी राष्ट्रीय सुरक्षा नीति में रूस को नहीं बल्कि चीन को शत्रु बताया जाता रहा है। एक्सपर्ट भी मानते हैं कि अमेरिका को 'खतरा' रूस से नहीं बल्कि चीन से है। अमेरिका और पश्चिमी देशों की सुरक्षा डॉक्टरिन में बीजिंग को चुनौती के रूप में पेश किया गया है। अमेरिका मानता है कि एशिया में यदि कोई देश चीन को चुनौती दे सकता है तो वह भारत है। इसलिए एक रणनीतिक साझेदार के रूप में उसने भारत के साथ अपनी करीबी बढ़ाई और संबंध बेहतर किए। लेकिन ट्रंप के टैरिफ भारत के राष्ट्रीय हितों को नुकसान पहुंचाने वाले हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी साफ कर चुके हैं कि भारत न तो किसी दबाव में झुकेगा और न ही अपने राष्ट्रीय हितों के साथ समझौता करेगा। भारत के लिए उसके हित सर्वोपरि हैं। इन हितों की सुरक्षा के लिए यदि चीन के साथ भी खड़ा रहना पड़े तो मंजूर है।
ट्रंप ने स्थापित कर दिया 3 देशों के बीच 'एकता मंच'
तिआनजिन में इसी की झलक देखने को मिली है। भारत, रूस और चीन जिस मजबूती और धमक के साथ यहां नजर आए हैं, उससे दुनिया में एक हलचल पैदा हुई है। एससीओ बैठक में करीब 20 देश शामिल हुए। ये ऐसे देश हैं जो अपनी संप्रभुता से किसी तरह का समझौता करने के पक्ष में नहीं हैं। भारत, रूस और चीन की तिकड़ी में उन्हें एक भरोसा और सुरक्षा नजर आ रहा है। अमेरिका की नीति जो कि भारत को चीन से अलग रखने की रही है, ट्रंप ने उसमें पलीता लगा दिया है। अमेरिकी राष्ट्रपति के टैरिफ ने भारत, रूस और चीन के बीच एक 'एकता मंच' स्थापित कर दिया है।