एक करेंसी, पांच देश, एक लक्ष्य — क्या BRICS तोड़ पाएगा डॉलर का दबदबा?
अगर ब्रिक्स करेंसी को सोने, ऊर्जा संसाधनों या वस्तु के मूल्य पर आधारित किया जाता है और डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर जैसे ब्रिक्स पे या स्वतंत्र स्विफ्ट जैसी प्रणाली को सफलतापूर्वक स्थापित कर दिया जाता है, तो यह धीरे-धीरे डॉलर की अनिवार्यता को चुनौती दे सकती है। इसलिए यह कहना गलत नहीं होगा कि ब्रिक्स करेंसी डॉलर के दबदबे को तुरंत तो नहीं, लेकिन धीरे-धीरे और स्थिर तरीके से कमजोर कर सकती है।
ब्रिक्स की अपनी करेंसी, कितना है संभव
ब्रिक्स करेंसी की कल्पना सिर्फ एक आर्थिक प्रयोग नहीं
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BRICS करेंसी की संभावना
ब्रिक्स समिट 2023 (फोटो- Lula Oficial)
क्यों मुमकिन लगती है ब्रिक्स करेंसी?
- डॉलर पर निर्भरता कम करने की इच्छा- ब्रिक्स देशों के बीच यह साझा भावना है कि वैश्विक व्यापार और वित्तीय व्यवस्था में डॉलर की अत्यधिक भूमिका विकासशील देशों को नुकसान पहुंचा रही है। खासकर रूस पर लगाए गए पश्चिमी प्रतिबंधों के बाद यह सोच और तेज हुई है।
- स्थानीय मुद्राओं में व्यापार का बढ़ता रुझान- भारत और रूस, भारत और यूएई, चीन और ब्राजील जैसे देशों ने हाल के वर्षों में आपसी व्यापार के लिए स्थानीय मुद्राओं में लेनदेन को प्राथमिकता दी है। यह ब्रिक्स करेंसी की ओर एक कदम माना जा सकता है।
- नई आर्थिक ब्लॉक की भूमिका- अब ब्रिक्स का विस्तार हो चुका है और इसमें सऊदी अरब, ईरान, इथियोपिया, मिस्र और यूएई जैसे देश भी शामिल हो गए हैं। इन देशों की वैश्विक तेल और गैस व्यापार में बड़ी भूमिका है, जिससे ब्रिक्स करेंसी को मजबूत समर्थन मिल सकता है।
- डिजिटल करेंसी का उभरता चलन- चीन जैसे देश पहले से ही डिजिटल करेंसी (e-CNY) पर काम कर रहे हैं। एक डिजिटल ब्रिक्स करेंसी तकनीकी रूप से संभव हो सकती है, जो फिजिकल करेंसी की बाधाओं को पार कर सकती है।
ब्रिक्स करेंसी के सामने चुनौतियां
- आर्थिक विविधता और असमानता- ब्रिक्स देशों की आर्थिक संरचना, विकास दर, मुद्रास्फीति, मुद्रा मूल्य और मौद्रिक नीति एक-दूसरे से काफी भिन्न हैं। चीन एक निर्यात आधारित और दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, वहीं भारत एक विशाल घरेलू मांग वाली उभरती अर्थव्यवस्था है। रूस ऊर्जा निर्यात पर निर्भर है और ब्राजील कृषि पर, जबकि दक्षिण अफ्रीका खनिज संसाधनों पर टिका है। इस असमानता के चलते एक साझा मौद्रिक नीति बनाना बेहद कठिन हो जाता है, जो एक करेंसी यूनियन की मूल शर्त होती है।
- राजनीतिक और रणनीतिक मतभेद- ब्रिक्स के सदस्य देशों के बीच कई भू-राजनीतिक तनाव हैं। उदाहरण के लिए, भारत और चीन के बीच सीमा विवाद और विश्वास की कमी, रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण रूस पर लगे प्रतिबंध, चीन और अमेरिका के बीच चल रहा आर्थिक संघर्ष। इन सभी मुद्दों के चलते सामूहिक निर्णय लेने की प्रक्रिया बाधित होती है और साझा मुद्रा जैसी रणनीतिक योजना पर आम सहमति बनाना मुश्किल होता है।
- केंद्रीय बैंक और विनियामक ढांचे की अनुपस्थिति- यूरोपीय यूनियन में यूरो लागू करने से पहले यूरोपीय सेंट्रल बैंक (ECB) की स्थापना की गई थी। ब्रिक्स देशों के पास अभी कोई साझा केंद्रीय बैंक या नियामक संस्था नहीं है, जो मौद्रिक नीति, ब्याज दर या मुद्रा निर्गम पर नियंत्रण रख सके। बिना इस प्रकार के मजबूत ढांचे के साझा मुद्रा का संचालन और स्थायित्व दोनों खतरे में पड़ सकते हैं।
क्या कह रहे हैं सदस्य देश?
- रूस (पुतिन की राय)- रुसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने स्पष्ट रूप से कहा है कि साझा ब्रिक्स करेंसी दीर्घकालिक लक्ष्य हो सकता है, लेकिन फिलहाल उस पर विचार नहीं किया जा रहा। उन्होंने सतर्क और क्रमिक दृष्टिकोण अपनाने पर जोर दिया है- पहले राष्ट्रीय मुद्राओं और डिजिटल भुगतान यंत्रों को मजबूत किया जाए।
- ब्राजील (लूला का दृष्टिकोण)- ब्राजील के राष्ट्रपति लूला दा सिल्वा साझा मुद्रा के पक्षधर रहे हैं। वे कहते हैं कि यह व्यापार में विकल्पों को बढ़ाएगा और उन्हें डॉलर के प्रभाव से मुक्त कर सकता है।
- भारत की सतर्कता- भारत ने इस प्रस्ताव पर एक दूरी बनाए रखी है। विदेश सचिव विनय क्वात्रा ने स्पष्ट किया कि ब्रिक्स चर्चा में मुख्य रूप से राष्ट्रीय मुद्राओं में व्यापार को अपनाना है, साझा मुद्रा नहीं। विदेश मंत्री जयशंकर ने स्पष्ट कहा कि भारत की डॉलर नीति विवादग्रस्त नहीं है- "हमने कभी डॉलर को टारगेट नहीं किया।"
- दक्षिण अफ्रीका की राय- दक्षिण अफ्रीका का रुख भी साझा मुद्रा के पक्ष में नहीं है। उनके वित्त मंत्री ने साफ कहा कि एक सामान्य मुद्रा भाषा में नहीं है- यह मौद्रिक नीति की स्वतंत्रता खोने जैसा होगा।
- चीन का दृष्टिकोण- चीन ने सार्वजनिक रूप से साझा मुद्रा का समर्थन नहीं किया, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली में सुधार की बात कही है और रॅन्मिन्बी को अधिक वैश्विक भूमिका देने की अपनी योजना जारी रखी है।
ब्रिक्स देशों का न्यू डेवलपमेंट बैंक (फोटो- NDB)
क्या टूटेगा डॉलर का दबदबा?
शिशुपाल कुमार टाइम्स नाउ नवभारत डिजिटल के न्यूज डेस्क में कार्यरत हैं और उन्हें पत्रकारिता में 13 वर...और देखें
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