श्रीनगर में हज़रतबल दरगाह में अशोक स्तंभ राष्ट्रीय प्रतीक को शिलापट्ट पर लगाने को लेकर धार्मिक कट्टरपंथियों ने विवाद किया। विशेषज्ञों का कहना है कि यह धार्मिक प्रतीक नहीं बल्कि सत्य, न्याय और अहिंसा जैसे सार्वभौमिक मूल्यों का प्रतीक है। मामला संविधान और राष्ट्रीय प्रतीक की गरिमा के नजरिए से देखा जाना चाहिए।
श्रीनगर स्थित हज़रतबल दरगाह, जहां पैगंबर मोहम्मद का पवित्र अवशेष रखा गया है, बीते शुक्रवार को विवादों का केंद्र बन गई। दरगाह के नवनिर्माण शिलापट्ट पर राष्ट्रीय प्रतीक अंकित था जिसे कुछ लोगों ने तोड़फोड़ कर नष्ट कर दिया। यह घटना जल्दी ही बड़ी बहस और राजनीति में बदल गई। शनिवार को जम्मू कश्मीर पुलिस ने सीसीटीवी फुटेज की मदद से 26 लोगों को हिरासत में लिया और जांच शुरू कर दी।
ईद-ए-मिलाद के मौके पर श्रीनगर की दरगाह हजरतबल में मचा बवाल।(फोटो सोर्स: iStock)
नेताओं की प्रतिक्रिया और विवाद की आग
इस घटना ने राजनीतिक हलकों को भी दो भागों में बांट दिया। जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने इस तोड़फोड़ को जायज़ ठहराते हुए कहा कि धार्मिक स्थल पर अशोक स्तंभ लगाने की आवश्यकता ही क्यों थी। वहीं पीडीपी अध्यक्ष महबूबा मुफ़्ती ने भी इसी तर्क को दोहराया। दूसरी ओर उपराज्यपाल मनोज सिन्हा ने इस घटना पर गहरी पीड़ा जताते हुए कहा कि यह अस्वीकार्य है और इससे आस्था व संवैधानिक गरिमा दोनों को ठेस पहुंची है।
दिल्ली के एडवोकेट विनीत जिंदल ने इस मामले में जम्मू कश्मीर के एलजी और डीजीपी को शिकायत दर्ज कराई है। उन्होंने उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ़्ती के बयानों को राष्ट्र प्रतीक के अपमान को जायज़ ठहराना बताया और FIR दर्ज करने की मांग की। शिकायत में State Emblem Act 2005 और BNS 2023 की धारा 111, 152, 153, 297, 324 और 351 का हवाला दिया गया है। उनका कहना है कि राष्ट्र प्रतीक से जुड़े मामले किसी भी रूप में राजनीतिक बहस या धर्म के नजरिए से नहीं देखे जा सकते, क्योंकि यह देश की एकता और संविधान की गरिमा का प्रतीक है।
अशोक स्तंभ क्या धार्मिक प्रतीक है?
यहां यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर राष्ट्रीय प्रतीक यानी अशोक स्तंभ, क्या किसी धर्म से जुड़ा हुआ चिह्न है। इसका उत्तर है बिल्कुल नहीं। अशोक स्तंभ मूलतः सम्राट अशोक द्वारा तकरीबन 2300 साल पहले बनवाया गया था और सारनाथ स्थित स्तंभ की शेरमुखी मूर्ति को भारत ने 26 जनवरी 1950 को राजचिह्न के रूप में अपनाया। इसमें चार शेर पीठ से पीठ मिलाकर खड़े हैं, नीचे घोड़ा, बैल, हाथी और सिंह बने हैं और बीच में धर्मचक्र है। आधार में उपनिषद से लिया गया वाक्य सत्यमेव जयते अंकित है। अशोक स्तंभ का संबंध बौद्ध धर्म की ऐतिहासिक धरोहर से है, लेकिन जब इसे राष्ट्रीय प्रतीक चुना गया तो इसे धर्मनिरपेक्ष दृष्टि से अपनाया गया। यह किसी धार्मिक विश्वास का प्रतीक नहीं बल्कि सत्य, अहिंसा, न्याय और करुणा जैसे सार्वभौमिक मूल्यों का प्रतीक है।
श्रीनगर की हजरतबल दरगाह की फाइल फोटो।(फोटो सोर्स: PTI)
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संविधान सभा में हुई बहस क्या कहती है?
स्वतंत्रता के बाद संविधान सभा में इस बात पर लंबी बहस हुई थी कि भारत का राजचिह्न कैसा हो। कई तरह के सुझाव आए, जैसे गंगा यमुना की आकृति या गौ माता को प्रतीक बनाना। लेकिन सदस्यों ने साफ कहा कि राष्ट्रीय प्रतीक ऐसा होना चाहिए जो किसी एक धर्म विशेष का प्रतिनिधित्व न करे। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस बहस में कहा था कि अशोक का काल भारत के इतिहास का अंतरराष्ट्रीय दौर था, जब भारत शांति और संस्कृति का संदेश दुनिया में फैला रहा था। इसी सोच को ध्यान में रखते हुए अशोक स्तंभ को चुना गया। संविधान सभा का संदेश साफ था कि राष्ट्र प्रतीक भारत की सांस्कृतिक धरोहर और नैतिक आदर्शों का प्रतिनिधित्व करेगा, न कि किसी धार्मिक पहचान का।
State Emblem Act 2005 क्या कहता है?
राष्ट्र प्रतीक की सुरक्षा और गरिमा बनाए रखने के लिए संसद ने 2005 में State Emblem of India (Prohibition of Improper Use) Act बनाया। इस कानून में कहा गया है कि
राज्य का प्रतीक केवल वही है जिसे 1950 में अपनाया गया था यानी सारनाथ का अशोक स्तंभ और उसके साथ सत्यमेव जयते।
बिना अनुमति इसका इस्तेमाल किसी व्यापार, निजी प्रचार, कंपनी लोगो, ट्रेडमार्क या निजी पहचान के लिए नहीं किया जा सकता।
इसका प्रयोग केवल केंद्र सरकार, राज्य सरकारों और अधिकृत संस्थाओं को ही करने की अनुमति है।
राष्ट्रीय प्रतीकों के अपमान पर मिलती है सजा
अगर कोई व्यक्ति इस कानून का उल्लंघन करता है तो उसे छह महीने तक की कैद, या पाँच हजार रुपये तक का जुर्माना, या दोनों हो सकते हैं।
राष्ट्रीय प्रतीक और भारत का संविधान
सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता अशोक के सिंह इस घटना पर संविधान की याद दिलाते हैं जो कहता है कि राष्ट्रीय प्रतीकों का सम्मान हर नागरिक का कर्तव्य है। उन्होंने कहा कि भारतीय संविधान ने केवल हमारे अधिकारों को सुनिश्चित नहीं किया है, बल्कि हमारे कर्तव्यों को भी स्पष्ट किया है। अनुच्छेद 51A के तहत, हर नागरिक के लिए यह अनिवार्य है कि वह अपने देश के प्रतीकों और सांस्कृतिक धरोहर का सम्मान करे। एडवोकेट सिंह इस विवाद पर साफ-साफ कहते हैं कि अशोक स्तंभ दुनिया के कई बड़े धर्मों जैसे ईसाई, इस्लाम और सिख धर्म से भी पुराना है। ये राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है, इसकी शुचिता पर सवाल नहीं खड़े किए जा सकते हैं। अशोक स्तंभ को राष्ट्रीय प्रतीक इसीलिए माना गया क्योंकि ये धार्मिक पहचान से परे था और रहेगा। दूसरे धर्मों पर अतिक्रमण करने की भावना रखने वाले बुतपरस्ती की आड़ में राष्ट्रीय प्रतीकों को नकार रहे हैं।
अशोक स्तंभ की फाइल फोटो।(फोटो सोर्स: iStock)
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भारतीय मस्जिदों में कलाकृतियां: स्थापत्य कला का अनमोल उदाहरण
हज़रत बल श्राइन में हुए विवाद के बाद सोशल मीडिया पर भी अशोक स्तंभ को लेकर खूब दिलचस्प चर्चाएं देखने को मिलीं। उसी में से एक X पर की गई पोस्ट पर नजर पड़ी। जिसे जम्मू-कश्मीर की सत्ता रूढ़ पार्टी के विधायक और प्रवक्ता तनवीर सादिक ने लिखा था। जो अंग्रेजी में है हमने उसे अनुवाद किया। जिसमें लिखा है कि, 'मैं धार्मिक विद्वान नहीं हूं, लेकिन इस्लाम में मूर्तिपूजा सख्त मना है। यह सबसे बड़ा पाप माना जाता है। धर्म की नींव तौहीद पर आधारित है। प्रतिष्ठित हज़रतबल दरगाह में मूर्तिकला स्थापित करना इसी विश्वास के खिलाफ है। पवित्र स्थानों को केवल तौहीद की शुद्धता ही दर्शानी चाहिए, और कुछ नहीं।' आपकी जानकारी के लिए तौहीद का मतलब भी समझाते चलते हैं। तौहीद दरअसल इस्लाम का एक मूलभूत सिद्धांत है जिसका अर्थ एकेश्वरवाद या अल्लाह ही एक मात्र ईश्वर और सर्वोच्च है। ऐसे में किसी मूर्ति, चित्र या मानव/प्राणी की पूजा नहीं की जा सकती है। तो आगे बढ़ते हैं इससे। तो सत्ता चला रही पार्टी जम्मू कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस के विधायक के इस अजीबो गरीब तर्क वाले पोस्ट पर नजर पड़ी मध्यकालीन इतिहास की जानी-मानी जानकार डॉक्टर रुचिका शर्मा की। जिन्होंने भारतीय मस्जिदों में कलाकृतियों के होने के कई उदाहरण साझा किए। पहला कुतुब मस्जिद दिल्ली यहां प्रत्येक स्तंभ पर सिंहमुख (कृतिमुख) की नक्काशी है, जिसे सुरक्षात्मक शक्तियों का प्रतीक माना जाता था। यह मस्जिद आज धार्मिक पूजा के लिए बंद है, लेकिन इसकी वास्तुकला और नक्काशी आज भी पर्यटकों और इतिहास प्रेमियों को आकर्षित करती है।
दूसरा मीतहर महल मस्जिद
इस मस्जिद के गेटवे में उत्साही सिंह (व्याला) और सुंदर हंस (हंसा) ब्रैकेट देखे जा सकते हैं। इन नक्काशियों में प्राचीन स्थापत्य कला की भव्यता और जीवंतता झलकती है, जो भारतीय और फारसी शिल्पकला का बेहतरीन मिश्रण है।
तीसरा सिद्दी सैय्यद मस्जिद
यहां की जालियों में जीवन वृक्ष (Tree of Life) की नक्काशी देखने लायक है। यह न केवल धार्मिक प्रतीक है बल्कि स्थापत्य कला की उत्कृष्टता का भी प्रमाण है। डॉ. शर्मा ने ये भी स्पष्ट किया कि इन मस्जिदों में नमाज पढ़ी जाती है, सिवाय कुतुब मस्जिद के, जो धार्मिक क्रियाकलापों के लिए बंद है। ऐसे में विधायक का पहला तर्क कि अशोक स्तंभ धार्मिक चिह्न है जिसे पहले ही तमाम उदाहरणों से नकार दिया था। उसके बाद भारतीय मस्जिदों में स्कल्पचर होने के प्रमाण देकर इतिहासकार रुचिका शर्मा ने सिरे से खारिज कर दिया।
अशोक स्तंभ सर्वोपरि, ये धार्मिक प्रतीक नहीं
भारतीय मस्जिदों में ऐसी कलाकृतियाँ मूर्तिपूजा के उद्देश्य से नहीं, बल्कि स्थापत्य और सजावट का हिस्सा हैं। ये नक्काशी और डिजाइनें इस्लामी वास्तुकला की जटिलता और सौंदर्य का प्रतीक हैं, न कि धार्मिक अनुचितता का। ऐसे में हज़रतबल में अशोक स्तंभ को शिलापट्ट पर रखने के विवाद को इसी संदर्भ में देखा जा सकता है। राष्ट्रीय प्रतीक और वास्तुकला के बीच अंतर समझना भी जरूरी है। अशोक स्तंभ राष्ट्रीय प्रतीक है, धार्मिक मूर्तिकला नहीं, इसलिए इसे धार्मिक विवाद से जोड़ना अनुचित है। हज़रतबल दरगाह की घटना ने इस सवाल को फिर से जगा दिया है कि राष्ट्र प्रतीक की गरिमा को लेकर संवेदनशीलता क्यों ज़रूरी है। अशोक स्तंभ को संविधान सभा ने धर्मनिरपेक्ष और सार्वभौमिक मूल्यों का प्रतीक मानकर चुना था। यह किसी धर्म का चिह्न नहीं बल्कि भारत की प्राचीन विरासत और न्याय, सत्य और करुणा जैसे आदर्शों का प्रतीक है। इसलिए इस विषय को राजनीति या धार्मिक विवाद के बजाय संवैधानिक गरिमा और राष्ट्रीय एकता के नजरिए से देखना ज़रूरी है।