दिल्ली

Delhi: हाई कोर्ट ने दी 15 साल की नाबालिग को 27 सप्ताह में अबॉर्शन की अनुमति; मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के लिए निर्णायक न्यायिक फैसला

दिल्ली हाई कोर्ट ने 15 वर्षीय नाबालिग लड़की को 27 सप्ताह की गर्भावस्था के दौरान गर्भपात की अनुमति दी, जबकि कानूनी सीमा 24 सप्ताह थी। अदालत ने महिला के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को भ्रूण के अधिकारों से अधिक महत्व दिया। यह फैसला नाबालिग के यौन उत्पीड़न के मामले में उसके संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा के लिए लिया गया।
Delhi High Court landmark judgement on medical termination of pregnancy

Delhi High Court landmark judgement on medical termination of pregnancy

Delhi News: दिल्ली हाई कोर्ट ने 15 साल की नाबालिग लड़की की ओर से दायर याचिका पर फैसला सुनाते हुए उसे 27 सप्ताह की गर्भावस्था के दौरान गर्भपात की अनुमति दी। हालांकि गर्भावस्था 24 सप्ताह की अधिकतम कानूनी सीमा पार कर चुकी थी, ऐसे में Medical Termination of Pregnancy Act, 1971 के तहत अबॉर्शन मान्य नहीं था। फिर जस्टिस अरुण मोंगा ने इसकी इजाजत देते हुए कहा कि महिला का मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य अजन्मे बच्चे या भ्रूण के जीवन की संभावना से अधिक जरूरी है।

अदालत क्यों पहुंची नाबालिग गर्भवती?

याचिका के मुताबिक गर्भावस्था की वजह यौन उत्पीड़न है। पीड़िता ने अपनी मां के माध्यम से कोर्ट से कहा कि गर्भ के बढ़ने से उसके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को गंभीर नुकसान होगा। याचिकाकर्ता और उसका परिवार 2016 से जिस किराए के मकान में रह रहे थे, आरोपी उसी मकान मालिक का बेटा है। आरोपी ने विवाह का झांसा देकर दिसंबर 2024 में पीड़िता के साथ शारीरिक संबंध बनाए और अप्रैल 2025 तक यौन उत्पीड़न जारी रखा। जब पीड़िता दो-तीन महीन तक पीरियड्स नहीं आए, तब 31 अगस्त 2025 को प्रेग्नेंसी का पता चला। आरोपी ने विवाह करने से इनकार दिया साथ ही गर्भपात के लिए दबाव भी डाला। 6 सितंबर 2025 को पीड़िता ने माता-पिता को पूरी जानकारी दी, जिसके बाद सुभाष प्लेस थाने में FIR दर्ज की गई।

राज्य सरकार ने अबॉर्शन का किया विरोध

दिल्ली सरकार ने याचिका का विरोध करते हुए कहा कि भ्रूण पहले ही 27 हफ्ते का हो चुका है और उसकी धड़कन सुनाई दे रही है। मेडिकल बोर्ड ने 11 सितंबर 2025 को रिपोर्ट में कहा कि याचिकाकर्ता केवल 15 वर्ष की नाबालिग है और गर्भावस्था यौन उत्पीड़न के कारण हुई है। गर्भ को जारी रखने से पीड़िता के मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीर असर पड़ेगा। बोर्ड ने यह भी बताया कि गर्भ 27 सप्ताह का होने के कारण बच्चा जीवित पैदा हो सकता है लेकिन पूर्व समय पर जन्म लेने के कारण स्वास्थ्य से जुड़ी जटिलताओं का सामना करना पड़ सकता है। यदि सामान्य मेडिकल तरीके से गर्भपात सफल नहीं हुआ, तो सर्जरी करने की जरूरत पड़ सकती है। पीड़िता को खून की कमी या एनीमिया से भी जूझ रही है। ऐसे मैं प्रेगनेंसी के दौरान उसे खून चढ़ाने की भी जरूरत पड़ेगी।

हाई कोर्ट ने जारी किए दिशा-निर्देश

कोर्ट ने कहा कि यौन उत्पीड़न के कारण नाबालिग लड़की पर पड़े मानसिक और शारीरिक तनाव को देखते उसे शिशु को जन्म देने के लिए मजबूर करना सही नहीं होगा। कोर्ट ने अस्पताल को निर्देश दिया कि बलात्कार के आरोपी के खिलाफ जांच को ध्यान में रखते हुए भ्रूण को DNA जांच के लिए सुरक्षित रखा जाए। अगर बच्चा जीवित पैदा होता है तो उसे पूरी चिकित्सा सहायता दी जाए और खर्च राज्य सरकार वहन करेगी। बाल कल्याण समिति भी आवश्यक कानूनी कदम उठाएगी। हाई कोर्ट ने साफ किया कि 24 सप्ताह की कानूनी सीमा के बावजूद, अनुच्छेद 226 के तहत संवैधानिक अधिकारों का प्रयोग करते हुए असाधारण परिस्थितियों में गर्भपात की अनुमति दी जा सकती है। इस मामले को विशेष परिस्थितियों वाली श्रेणी में रखा गया।

भ्रूण की जीवन क्षमता और महिला के अधिकार

दिल्ली हाई कोर्ट के जस्टिस अरुण मोंगा ने कहा कि 24 सप्ताह की सीमा के बाद गर्भपात की मांग वाले मामलों में भ्रूण की जीवन क्षमता महत्वपूर्ण सवाल बन गई है। कोर्ट ने जोर दिया कि महिला के जीवन, स्वतंत्रता, गरिमा और निर्णय लेने के अधिकार भ्रूण के अधिकारों से अधिक महत्वपूर्ण हैं। कोर्ट ने यह भी कहा कि कानून में भ्रूण की अधिकारों की सीमा और महिला के अधिकारों के बीच स्पष्ट संतुलन होना चाहिए। समय-समय पर अदालतें अपने न्यायिक विवेक का प्रयोग तो कर सकती हैं लेकिन इसे संसद द्वारा बनाए गए कानून का विकल्प नहीं कहा जा सकता है।

MTP कानून में और स्पष्टता की जरूरत

कोर्ट ने निष्कर्ष निकाला कि यह समय है जब संसद को गर्भवती महिला की जन्म देने की निर्णय क्षमता और भ्रूण के अधिकारों के बीच संतुलन तय करने वाला स्पष्ट कानून बनाना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि वर्तमान में इसको लेकर कोई साफ तरीका नहीं है। अदालतें इसको लेकर समय-समय पर कुछ फैसला तो दे सकती हैं लेकिन इस पर कानून बनाने का काम संसद का ही है। इस फैसले ने महिला के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य की सुरक्षा पर जोर दिया है। कोर्ट ने स्पष्ट किया कि महिलाओं को अपने स्वास्थ्य और जीवन से जुड़े निर्णय लेने का अधिकार है। विशेषज्ञों का मानना है कि यह फैसला महिला अधिकारों के क्षेत्र में मील का पत्थर साबित होगा और संवैधानिक अधिकारों को मजबूत करेगा।

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गौरव श्रीवास्तव author

टीवी न्यूज रिपोर्टिंग में 10 साल पत्रकारिता का अनुभव है। फिलहाल सुप्रीम कोर्ट से लेकर कानूनी दांव पेंच से जुड़ी हर खबर आपको इस जगह मिलेगी। साथ ही चुना...और देखें

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