सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति संदर्भ पर फैसला सुरक्षित रखा, क्या राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए बिलों पर समय सीमा तय की जानी चाहिए?

सुप्रीम कोर्ट ने राष्ट्रपति संदर्भ पर फैसला सुरक्षित रखा (PHOTO-PTI)
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा भेजे गए अनुच्छेद 143 के तहत संदर्भ पर फैसला सुरक्षित रख लिया। इस संदर्भ में अदालत के सामने सबसे बड़ा सवाल यह था कि क्या राष्ट्रपति और राज्यपाल को विधानसभा से पारित विधेयकों पर अनुच्छेद 200 और 201 के तहत कोई निश्चित समय सीमा के भीतर निर्णय लेना चाहिए।
मुख्य न्यायाधीश बीआर गवई की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ में जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस विक्रम नाथ, जस्टिस पीएस नरसिम्हा और जस्टिस एएस चंद्रूकर शामिल रहे। इस बेंच ने इस मामले की दस दिनों तक लगातार सुनवाई की।
जस्टिस जेबी पारदीवाला के फैसले के बाद उठा था विवाद
यह पूरा विवाद उस समय शुरू हुआ जब सुप्रीम कोर्ट के दो जजों जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस महादेवन की बेंच ने तमिलनाडु राज्यपाल मामले में कहा था कि राज्यपाल और राष्ट्रपति को बिलों पर फैसला लेने में देरी नहीं करनी चाहिए और एक तरह से समय सीमा तय कर दी थी। फैसले में कहा गया कि राज्यपाल और राष्ट्रपति अनिश्चितकाल तक बिलों पर बैठे नहीं रह सकते। लेकिन इस फैसले के बाद राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी। राष्ट्रपति ने कहा कि दो जजों की पीठ ने जो सीमाएं तय की हैं, क्या वह संविधान की भावना के अनुरूप हैं। इसी के तहत यह संदर्भ सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों वाली संविधान पीठ को भेजा गया।
राष्ट्रपति ने इन 14 सवाल सुप्रीम कोर्ट से पूछे। इनमें मुख्य बिंदु थे:
- क्या अनुच्छेद 200 और 201 में समय सीमा का न होना एक संवैधानिक चुप्पी है या कोई सोचा-समझा निर्णय?
- क्या सुप्रीम कोर्ट यह तय कर सकता है कि राष्ट्रपति या राज्यपाल कितने समय में बिल पर फैसला लें?
- क्या अदालत राज्यपाल को आदेश दे सकती है कि वे किसी बिल को मंजूरी दें या अस्वीकार करें?
- क्या बिल पर देरी करना न्यायिक समीक्षा के दायरे में आ सकता है?
- क्या समय सीमा तय करना संविधान संशोधन जैसा होगा?
- क्या राष्ट्रपति और राज्यपाल के विवेकाधिकार को अदालत सीमित कर सकती है?
- क्या कार्यपालिका और राज्यपाल के बीच परामर्श और सहयोग की प्रक्रिया को अदालत बाधित कर सकती है?
- क्या जितनी जल्दी हो सके शब्द का मतलब अदालत तय कर सकती है?
- क्या अलग-अलग राज्यों के विवादित मामलों में अदालत अलग नियम बना सकती है?
- क्या जनता या विधायक अदालत में याचिका दायर कर राज्यपाल को बिल पर फैसला करने को बाध्य कर सकते हैं?
- क्या राज्यपाल द्वारा बिल रोकने का मतलब अस्वीकार माना जाएगा?
- क्या राष्ट्रपति के पास भेजे गए बिलों पर भी समय सीमा लागू हो सकती है?
- क्या अदालत समय सीमा तय कर लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप कर रही होगी?
- क्या तमिलनाडु केस में सुप्रीम कोर्ट का फैसला संविधान के अनुरूप है या उसमें संशोधन की आवश्यकता है?
सुप्रीम कोर्ट की चिंताएं: क्या राज्यपाल अनंतकाल तक बिल रोक सकते हैं?
सुनवाई के दौरान संविधान पीठ ने कई बार कहा कि अगर राज्यपाल बिना किसी समय सीमा के बिलों को रोक सकते हैं और उन्हें विधानसभा को वापस नहीं भेजते, तो यह चुनी हुई सरकार को राज्यपाल की मर्जी पर निर्भर बना देगा। अदालत ने इसे लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए खतरनाक बताया। साथ ही, अदालत ने यह भी सवाल किया कि क्या कुछेक मामलों की देरी के आधार पर ब्लैंकेट टाइमलाइन यानी एक समान समय सीमा तय करना व्यावहारिक होगा। अदालत ने कहा कि संविधान में जितनी जल्दी हो सके शब्द का इस्तेमाल जानबूझकर किया गया है और इसे सख्त समय सीमा में बदलना संविधान की मूल भावना के खिलाफ हो सकता है।
राज्यों ने संविधान पीठ की सुनवाई का क्यों किया विरोध?
तमिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल और पंजाब ने इस संविधान पीठ के सामने सुनवाई पर ही आपत्ति जताई। इन राज्यों का तर्क था कि तमिलनाडु राज्यपाल केस में दो जजों की पीठ पहले ही इस मुद्दे पर फैसला दे चुकी है। गैर बीजेपी शासित राज्यों का कहना था कि राष्ट्रपति का यह संदर्भ अनुच्छेद 143 के दायरे में आता ही नहीं क्योंकि सवाल पहले से ही तय हो चुका है। राज्यों का ये भी आरोप था कि केंद्र सरकार इस संदर्भ के जरिए राज्यपालों को मिली जिम्मेदारियों को लेकर भ्रम पैदा करना चाहती है और राज्यों की विधायी प्रक्रिया पर असर डालना चाहती है।
वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने कहा कि अगर राज्यपाल के पास बिलों पर बैठने की छूट होगी तो यह संघीय ढांचे के खिलाफ होगा। डॉ. अभिषेक मनु सिंघवी और अन्य वरिष्ठ वकीलों ने भी यही दलील दी कि समय सीमा न होने से चुनी हुई सरकारों की नीतियां प्रभावित होंगी।
केंद्र सरकार का पक्ष और SG की दलीलें
केंद्र सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि राज्यपाल सालों तक बिलों को रोककर नहीं रख सकते लेकिन अदालत को समय सीमा तय करने की अनुमति भी नहीं है। उन्होंने कहा कि अनुच्छेद 200 और 201 में जितनी जल्दी हो सके जैसा शब्द लचीला है, जिसका अर्थ है कि हर मामले को उसकी प्रकृति के हिसाब से देखा जाए।SG ने कहा कि पिछले 50 वर्षों में 90 फीसदी बिल एक महीने के भीतर ही मंजूर हो गए। केवल विवादित मामलों में ही देरी हुई। उन्होंने उदाहरण दिया कि तमिलनाडु में भी अधिकांश बिल तुरंत मंजूर किए गए।
सुप्रीम कोर्ट और केंद्र सरकार के बीच बहस
सीजेआई गवई ने SG से पूछा कि अगर कोई संवैधानिक पद पर बैठा व्यक्ति अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता तो क्या अदालत हाथ पर हाथ रख कर बैठ सकती है। इस पर SG ने कहा कि अदालत राज्यपाल को आदेश नहीं दे सकती क्योंकि यह विभाजन सिद्धांत का उल्लंघन होगा। सीजेआई ने टिप्पणी की कि वे न्यायिक सक्रियता के पक्षधर हैं लेकिन यह न्यायिक आतंकवाद में नहीं बदलना चाहिए। उन्होंने कहा कि अगर लोकतंत्र का कोई स्तंभ अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाता है तो अदालत को देखना होगा कि क्या वह हाथ पर हाथ धरे बैठ सकती है।
नेपाल और बांग्लादेश के सत्तापलट का हुआ जिक्र
सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने पड़ोसी देशों की राजनीतिक अस्थिरता का हवाला देते हुए लोकतांत्रिक मूल्यों की अहमियत पर जोर दिया। मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई ने कहा, हमें अपने संविधान पर गर्व है। देखिए हमारे पड़ोसी देश में क्या हो रहा है। नेपाल के हालात हम देख ही रहे हैं। सीजेआई की इस टिप्पणी पर सहमति जताते हुए जस्टिस विक्रम नाथ ने बांग्लादेश की ओर इशारा करते हुए कहा कि वहां भी हालात ठीक नहीं हैं।
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