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सुगंध दशमी व्रत की कथा, सुगंध दशमी व्रत कहानी से जानें इसका महत्व,जानें सुगंध दशमी व्रत कब है और क्यों रखा जाता है

सुगंध दशमी व्रत कथा इन हिंदी (Sugandh Dashmi Vrat Katha Jain Pdf, Sugandh Dashmi Vrat kab hai 2025): भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को सुगंध दशमी का व्रत रखा जाता है। यह व्रत सुगंध और धूपदान की अर्पणा से जुड़ा है, इसलिए इसे सुगंध दशमी कहते हैं। सुगंध दशमी 2025 का व्रत 2 सितंबर, मंगलवार के दिन है।यहां देखें सुगंध दशमी व्रत 2025 में कब है, सुगंध दशमी की व्रत कथा, सुगंध दशमी व्रत कथा Lyrics।
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सुगंध दशमी व्रत कथा इन हिंदी (Pic: Canca)

सुगंध दशमी व्रत कथा इन हिंदी (Sugandh Dashmi Vrat Katha Jain Pdf, Sugandh Dashmi Vrat kab hai 2025): जैन धर्म में सुगंध दशमी का व्रत अत्यंत पुण्यदायी माना गया है। यह व्रत जीवन में सुगंध की तरह पवित्रता और पुण्य फैलाने का प्रतीक है। सुगंध दशमी का व्रत भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को किया जाता है। 2025 में सुगंध दशमी का व्रत 2 सितंबर, मंगलवार के दिन रखा जा रहा है। मान्यता है कि इसे करने से सभी प्रकार के पापों का नाश होता है और जीवन में सुख-समृद्धि आती है।

Sugandh Dashmi Vrat Katha in Hindi

जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र के काशी देश में वाराणसी नगर था जहां राजा भसूपाल राज्य करता था। उनकी रानी का नाम श्रीमती था। एक समय राजा वन में गया तो अपने करीब से एक मासोपवासी मुनिराज को नगर में आहार ग्रहरण करने हेतु जाते देखा। तब राजा ने रानी को अपार भक्ति से मुनि को आहार देने को कहा जिस पर रानी क्रोधित हो गई। लेकिन ऐसे ही क्रोध में वह राजा की बात मानकर चली गई। घर पर उसने कड़वी तूंबडी बनाकर मुनि को ी।

मुनिराज ने भोजन किया लेकिन मार्ग में उनकी तबीयत खराब हो गई। वे भूमि पर गिर पड़े। यह देखकर श्रावकों में कोलाहल हो गया। उपचार के लिए उनको जिनालय ले जाया गया। सभी ने रानी के इस प्रकार खोटे आहार देने की निंदा की। जब राजा ने यह बात सुनी तो उसे भी बहुत दुख हुआ। उसने रानी को खोटे वचन कहे और उसके वस्त्राभूषण छीनकर बाहर निकाल दिया।

दुष्टकर्मों के प्रभाव से रानी के शरीर में कोढ़ हो गया। प्राण छोड़कर उसने भैंसे के रूप में जन्म लिया। बचपन में ही उसकी मां मर गयी तब वह अत्यंत दुर्बल हो गई। एक बार कीचड़ में फंस गई। वहीं से उसने किसी मुनि को देखा, तब वह क्रोधित होकर सींग हिलाने लगी, तभी वह और अधिक कीचड़ में डूब गई और मृत्यु को प्राप्त हो होकर गर्दभी हुई।

गढ़र्भ रूप में भी पिछले पैर से पंगु थी। उसने एक मुनिराज को देख। उन्हें देखकर उसे मन में कलुष परिणाम हुए। उसने उनके ऊपर पिछले पैर का प्रहार किया। प्राण छोड़कर वह अपने पाप कर्म के प्रभाव से शूकरी हुई। श्वानादिक के दुख से युक्त हो वह मरकर चाण्डाल के पुत्री हुई। माता के गर्भ में जब वह आई तो उसके पिता का देहांत हो गया और जन्म के समय उसकी मां मर गई।

जो कोई स्वजन उसका पालन करता था, उसकी मृत्यु हो जाती थी। उस कन्या के शरीर से अत्यधिक दुर्गंध आती थी तब उसे लोगों ने जंगल में छोड़ दिया। दुर्गंधा जंगल में कंद-मूल, फल खाती हुई घमा करती थी वहां एक मुनि महाराज शिष्य सहित एक बार आए। शिष्य ने गुरू से प्रश्न किया कि इतनी भीषण दुर्गंध कहां से आ रही है।

मुनि महाराज ने कहा कि जो प्राणी मुनि को दुख देता है वह विभिन्न प्रकार के दुख पाता है। इस कन्या ने पूर्व में मुनि को अधिक दुख दिया था। इसी कारण नाना तिर्यंच योनि में परिभ्रमण कर यह चाण्डाल के घर कन्या हुई है। तब शिष्य ने गुरू से पूछा- इस कन्या का यह पाप कैसे नष्ट हो सकता है? गुरु महाराज ने कहा कि जिनधर्म को धारण करने से पाप दूर हो जाता है।

गुरू, शिष्य के उपर्युक्त संवाद को उस कन्या ने सुना और उपशम भावों से युक्त हो, उसने पंच अभक्ष्य फलों का त्याग कर दिया। शुद्ध भोजन किया तथा शुद्ध भाव से प्राण छोड़े। बाद में वह उज्जयिनी में एक दरिद्र ब्राह्मण की पुत्री हुई। उसके उत्पन्न होते ही माता-पिता मर गये। वह वन में चली गई। वहां अश्वसेन नामक राजा जाकर सुदर्शन नामक मुनिराज से धर्म श्रवण कर रहे थे। उसी समय वह कन्या वहां से निकली।

मुनिराज ने कन्या की और इंगितकर कहा कि पाप के उदय से ऐसी हालत होती है। कन्या घास का गट्ठर उतार कर मुनि के वचन जब सुन रही थी, तभी उसे पूर्वजन्म का स्मरण हो आया। वह मूर्छित हो गई। राजा ने उपचार कराकर उसे सचेत किया तथा उससे मूर्छा का कारण पूछा- कन्या ने अपनी पूर्व जन्म का वृतान्त बतला दिया। यह सुनकर राजन ने मुनिवर से कहा यह कन्या अब कैसे सुख पाएगी?

मुनि महाराज ने कहा कि यदि यह कन्या सुगन्धदशमी व्रत का पालन करेगी तो सुख पायेगी। सुगन्धदशमी व्रत की विधि के विषय में प्रश्न पूछने पर मुनि महाराज ने सारी विधि बतला दी। राजा ने कन्या को बुलाकर धूपदशमी व्रत बतलाया। कन्या ने उसका भक्ति पूवर्क पालन किया। तब उसका पूर्व पाप कर्म नष्ट हुआ। राजा तथा नगरवासियों ने भी उस व्रत को धारण किया।

धूप दशमी व्रत कथा हिंदी में लिखित

कनकपुर नगर का राजा कनकप्रभ था। उसकी रानी का नाम कनकमाला था। राजा के एक राज श्रीष्ठी था, जिसका नाम जिनदत्त था। जिनदत्त की स्त्री जिनदत्ता थी।

दोनों की पुत्री हुई तिलकमती जो अत्यधिक रूपवती और सुगंधवती थी। कुछ समय बाद उसकी मां की मृत्यु हो गई। जिससे वह दुखी रहने लगी। जिनदत्त ने दूसरा विवाह कर लिया। उसकी नवविवाहिता पत्नी गोधनपुर नगर के वृषभदत्त वणिज की सुता बंधुमती से सेठ की तेजोमती नामक कन्या हुई।

बंधुमती तिलकमती से द्वेष करने लगी। एक बार राजा कंचनप्रभ ने जिनदत्त को दूसरे द्वीप भेज दिया। जाते हुए वह बंधुमती से तिलकमती तथा तेजमती का विवाह श्रेष्ठ लक्षणों से युक्त वर के साथ करने को कह गया। कन्याओं को देखने जो लोग आते - वे तेजोमती की अपेक्षा तिलकवती को अधिक पसंद करते थे। बंधुमती तिलकवती की निंदा करती थी, किंतु कोई भी उसकी बात नहीं मानता था।

एक बार उसने तिलकवती को वरपक्ष को दिखलाकर तेजामती के विवाह का निश्चय किया। जब ब्याह के साथ सब लोग आए तब वह तिलकवती का श्रृंगार करके उसे अपने साथ रात्रि में श्मशान ले गई। वहां उसने चारों और चार दीपक जलाकर रख दिए और बीच में तिलकवती को बैठाकर कहा कि यहां तुम्हारा पति आएगा। उसके साथ विवाहकर तुम घल चली आना। ऐसा कहकर वह वहां से चली गई।

आधी रात्रि के समय राजा ने अपने महल से श्मशान की तरफ दीपकों की जलती हुई ज्योति देखी और बीच में कन्या को देखा। देखकर मन में विचार किया कि यह देवता है या यक्षिणी है अथवा किन्नरी है अथावा कोई भी है? यहां क्यों आई है? ऐसा सोचकर तलवार लेकर वह वहां चला जहां तिलकमती बैठी थी।

राजा ने तिलकमती से वहां बैठने का कारण पूछा-कन्या ने कहा कि राजा ने मेरे पिता को रत्नद्वीप भेज दिया है तथा मेरी माता मुझे यहां बैठा गई है तथा कह गई है कि मेरा पति यहां आएगा। इस स्थान पर तुम आए हो अतः तुम ही मेरे पति हो। यह सुनकर राजन ने उसके साथ विवाह किया। राजा प्रात जब जाने लगा तो तिलकवती ने उससे कहा कि तुम तो मेरे पति हो, मेरा उपभोग कर अब तुम कहां जा रहे हो?

राजा ने उत्तर दिया कि मैं प्रतिदिन रात्रि को तुम्हारे पास आऊंगा। तिलकमती ने सिर झुकाकर पूछा- मैं तुम्हारा नाम क्या बतलाऊंगी? राजा ने अपना नाम गोप बतलाया। बंधुमती घर जाकर कहने लगी कि तिलकमती दुख की खान है। विवाह के समय पता नहीं उठकर कहां चली गई? बाद में उसे श्मशान में पाया गया। मिलने पर तिलकवती ने हर्षित होकर कहा कि हे माता! जैसा तुमने कहा था, वैसा ही मैंने किया है। बंधुमती जोर से कहने लगी कि यह असत्य बात कह रही है,ऐसा कहकर वह उसे घर ले आई।

उसने घर आकर उसके पति के विषय में पूछा-तिलकमती ने कहा कि मैंने गोप से विवाह किया है। यह सुनकर उसने उस पर कुपित हो अपने पास का ही एक घर उसके रहने के लिए दिया। प्रतिदिन राजा उसके घर आने लगा। बंधुमती तिलकमती को दीपक जलाने के लिए तेल ही नहीं देती थी, अत दोनों अंधेरे में ही रहते थे।

कुछ दिन बीत जाने पर बंधुमती ने तिलकमती से कहा कि तू ग्वाले से आज कहना कि मुझे दो बुहारी लाकर दे जाना। रात्रि में तिलकमती ने अपने स्वामी से माता को देने के लिए दो बुहारी मांगी। राजन ने दूसरे दिन स्वर्णमय सींकों वाली तथा रत्नमय मूठ वाली दो बुहारी लाकर तिलकमती को दे दी। साथ ही उसे उत्तम सोलह आभूषण तथा वस्त्र और दिए। तिलकमती ने तब राजा के चरण धोकर उन्हें केशों से पोंछा। सुबह राजा अपने महल गया। तिलकमती ने बंधुमती को दोनों बुहारी दे दीं तथा उसे वस्त्र एवं आभूषण भी दिखलाए।

उन्हें देखकर बंधुमती ने कहा कि तेरा पति चोर है, उसने राजा के आभूषण चुराए हैं। ऐसा कहकर वे आभूषण छीन लिए। तिलकमती दुखी हुई, उसे राजा ने सांत्वना दी कि तुम चिंता मत करो, मैं तुम्हें और ला दूंगा। इतने में जिनदत्त रत्नद्वीप से आया। बंधुमती ने पति से कहा- कि तुम्हारी पुत्री के अवगुण कहां तक कहें, विवाह के समय उठकर पता नहीं कहां चली गई और उसने चोर के साथ विवाह कर लिया।

वह चोर राजा के यहां जाता है और वस्त्राभूषण चुरा कर ले आता है। उस चोर ने इसे ये वस्त्राभूषण दिए। इन्हें छीनकर मैंने रख लिये हैं। यह कहकर उसने पति के सामने वे वस्त्राभूषण रख दिए। सेठ यह देख कंपित हो गया तथा उन वस्त्राभूषणों को राजा के सामने रखकर सब वृत्तांत कह सुनाया।

राजा ने कहा- यह बात तो ठीक है, किंतु चोर के विषय में भी तो बतलाओ। सेठ ने कन्या से चोर के विषय में पूछा- कन्या ने कहा कि मेरी माता मुझे घर में दीपक जलाने के लिए तेल ही नहीं देती थी, अतः मैंने अपनी पति का मुंह नहीं देखा। किंतु मैं एक तरीके से पहचान सकती हूं कि मैं प्रतिदिन पति के आने पर उनके चरण धोती थी। चरणों को धोकर मैं पति की पहचान कर सकती हूं।

सेठ ने जाकर राजा से यह बात कही। राजा ने कहा- कि चोर का पता लगाने के लिए हम आज तुम्हारे घर आएंगे। सेठ ने घर जाकर तैयारी की। राजा आया। सारी प्रजा इकट्ठी हुई। तिलकमती नेत्र बंदकर सभी के चरण धुलाने लगी, किंतु सभी के विषय में वह कहती जाती थी। कि यह मेरा पति नहीं है। जब राजा आया तब उसके चरण धोकर उसने कहा कि यह मेरा पति है।

राजा यह सुनकर हंसकर कहने लगा कि इस कन्या ने मुझे चोर बना दिया है। यह सुनकर तिलकमती कहने लगी चाहे राजा हो या कोई और, मेरा पति तो यही है। उसकी बात सुनकर सब हंसने लगे।

राजा ने कहा- कि आप लोग व्यर्थ हंसी मत कीजिए, इसका पति मैं ही हूं। लोगों के पूछने पर राजा ने सारा वृत्तान्त कह दिया। सारे लोगों ने कहा कि यह कन्या धन्य है जो कि इसने राजा जैसा पति पाया। पूर्वजन्म में इसने व्रत किया इसका यह फल इसे प्राप्त हुआ है। सेठ ने भोजन कराकर सबके समक्ष इन दोनो का विवाह करा दिया। राजा ने तिलकमती को पटरानी बना दिया।

एक बार राजा अपनी रानी के साथ जिनमंदिर गया हुआ था, वहां उसने श्रुतसागर मुनि के दर्शन किए तथा उनसे प्रश्न किया कि मेरी यह रानी इतनी रूप सम्पदा वाली कैसे हुई? मुनि महाराज ने मुनिनिन्दा से लेकर सुगंध दशमी व्रत धारण करने इत्यादि की सारी कथा कह दी।

इसी अवसर पर उस सभी में किसी देव ने प्रवेश किया। उसने जिनेन्द्र देव, जिनशास्त्र और जिनगुरू को प्रणाम किया, अनन्तर वह महादेवी तिलकमती के चरणों में आ गिरा।

वह बोला-स्वामिनि, अपने विद्याधर रूप पूर्व जन्म में तुम्हारे ही प्रसंग से मैंने सुगंधदशमी व्रत का अनुष्ठान किया था। उसी व्रतानुष्ठान के प्रभाव से मैं स्वर्ग में महान ऋद्धिमान देवेन्द्र हुआ हूं।

हे देवी! तुम मेरे धर्म साधन में कारण हुई हो, अतः तुम्हारे दश्ज्र्ञन के लिए मैं यहां आया हूं। हे देवि! तुम मेरी जननी हो। इतना कहकर और रानी को प्रणाम कर वह देव आकाश में चला गया। यह दश्य देखकर सभी को सुगन्धदशमी व्रत पर और भी अधिक दृढ श्रद्धा हो गई। सभी प्रसन्नचित्त हो अपने घर गए।

तिलकमती ने सुगंधदशमी व्रत ग्रहण कर प्रायोपगमन धारण किया और समाधिमरण किया अतः वह स्त्री पर्याय को छोडकर ईशान्य स्वर्ग में दो सागर कीआयु वाला देव हुआ। आगामी भव में उसे संसार से मुक्ति रूप अद्भुत फल प्राप्त होगा।

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मेधा चावला author

टाइम्स नाउ नवभारत में मेधा चावला सीनियर एसोसिएट एडिटर की पोस्ट पर हैं और पिछले सात साल से इस प्रभावी न्यूज प्लैटफॉर्म पर फीचर टीम को लीड करने की जिम्म...और देखें

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